×

कार्तिक मास: चंद्रमा की पूजा और पौराणिक कथाओं का अद्भुत संगम

कार्तिक मास की शुरुआत के साथ अध्यात्मिक ऊर्जा और पौराणिक आस्था का अद्भुत संगम होता है। यह महीना व्रत-उपवास और आत्मा की शुद्धि का प्रतीक है। चंद्रमा की पूजा का विशेष महत्व है, जिसमें मातृ प्रेम और मानसिक शांति की प्राप्ति होती है। जानें इस महीने में चंद्र पूजा, अहोई अष्टमी और कार्तिक पूर्णिमा के महत्व के बारे में।
 

कार्तिक मास का महत्व

Kartik Month: कार्तिक मास की शुरुआत के साथ, एक अद्भुत अध्यात्मिक ऊर्जा और पौराणिक आस्था का संगम देखने को मिलता है। यह महीना केवल व्रत-उपवास और स्नान का नहीं, बल्कि मन, चित्त और आत्मा की शुद्धि का प्रतीक भी माना जाता है। तंत्र और ज्योतिष दोनों दृष्टियों से, कार्तिक मास रात्रिकालीन साधनाओं के लिए अत्यंत प्रभावशाली समय है। इस दौरान चंद्रदेव की उपासना और चंद्र अर्घ्य का विशेष महत्व होता है, क्योंकि इसी समय चंद्रमा का दैवीकरण होता है।


चंद्र पूजा का महत्व

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, चंद्रमा मन, मातृ प्रेम और मानसिक स्थिरता का प्रतीक है। कहा जाता है कि यदि मां प्रसन्न हैं, तो चंद्रमा के किसी भी दोष का दुष्प्रभाव व्यक्ति के जीवन में नहीं पड़ता। इसलिए, कार्तिक मास को मातृ आशीर्वाद, मानसिक शांति और समृद्धि से जोड़ा जाता है।


कार्तिक मास में चंद्र पूजा का महत्व

चंद्र पूजा का महत्व

चंद्रमा को प्रेम, सौंदर्य, रति और समृद्धि का प्रतीक माना गया है। वह न केवल सौभाग्य का स्वामी है, बल्कि जीवन में ऐश्वर्य और आनंद का वरदान देने वाला देवता भी है। कार्तिक मास में किए जाने वाले अधिकांश व्रत चंद्रदर्शन और चंद्र अर्घ्य से ही पूर्ण होते हैं। करवा चौथ इसका प्रमुख उदाहरण है, जो कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है और चंद्रदेव के दर्शन के साथ ही व्रत संपन्न होता है.


अहोई अष्टमी और कार्तिक पूर्णिमा

अहोई अष्टमी और कार्तिक पूर्णिमा

कार्तिक कृष्ण अष्टमी को मनाई जाने वाली अहोई अष्टमी भी चंद्रमा से गहराई से जुड़ी है। इस दिन महिलाएं तारे और चंद्रमा को देखकर व्रत खोलती हैं। वहीं, कार्तिक पूर्णिमा चंद्रदेव की पूर्णता का उत्सव मानी जाती है—जब चंद्रमा अपने संपूर्ण तेज से प्रकाशित होता है और ब्रह्मांड में सौंदर्य, प्रेम और संतुलन का संचार करता है.


चंद्रमा का दिव्य जन्म

चंद्रमा का दिव्य जन्म और पुराणों में वर्णन

चंद्रमा का उद्गम और अस्तित्व केवल खगोलीय दृष्टि से ही नहीं, बल्कि पौराणिक गाथाओं में भी गहराई से वर्णित है। भागवत पुराण के अनुसार, चंद्रदेव न तो ऋषि कश्यप और अदिति के पुत्र हैं, बल्कि महर्षि अत्रि और सती अनुसूया के पुत्र हैं। यही वंश आगे चलकर चंद्रवंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जिसके अधिपति स्वयं चंद्रमा माने जाते हैं.


सती अनुसूया और त्रिदेवों की कथा

सती अनुसूया और त्रिदेवों की अद्भुत कथा

भागवत पुराण के अनुसार, एक बार देवर्षि नारद विष्णुलोक पहुंचे, जहां देवी लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती के बीच सतीत्व पर चर्चा चल रही थी। नारद मुनि ने कहा-धरती पर भी सतीत्व का पालन करने वाली स्त्रियां हैं, जिनमें सती अनुसूया श्रेष्ठ हैं। देवियों को यह बात स्वीकार नहीं हुई और उन्होंने ब्रह्मा, विष्णु और महेश को सती अनुसूया की परीक्षा लेने भेजा.


जब त्रिदेव बने सती अनुसूया के बालक

जब त्रिदेव बने सती अनुसूया के बालक

तीनों देव मानव रूप में सती अनुसूया के बालक बन गए और आश्रम में खेलने लगे। जब महर्षि अत्रि लौटे, तो उन्होंने उन बालकों में दिव्यता देखी और सत्य जान लिया। इस बीच देवियां- लक्ष्मी, पार्वती और सरस्वती, अपने पतियों को खोजते हुए आश्रम पहुंचीं। उन्होंने जब नवजात शिशुओं के रूप में अपने पतियों को देखा, तो सती अनुसूया के सतीत्व को प्रणाम किया और त्रिदेवों को मुक्त करने की प्रार्थना की.


ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए चंद्रदेव

ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए चंद्रदेव

ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए चंद्रमस, शंकर के अंश से दुर्वासा, और विष्णु के अंश से दत्तात्रेय। चंद्रमस ने वेद-वेदांत का गहन अध्ययन किया और सहस्राब्दियों तक कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मदेव ने उन्हें ऐश्वर्य का वरदान दिया, जिसके बाद वे चंद्रलोक के अधिपति बने और समस्त जगत में "चंद्रदेव" कहलाए.


ऋग्वेद में चंद्रदेव का उल्लेख

ऋग्वेद में चंद्रदेव को ‘सोम’ कहा गया है। ‘सोमसूक्त’ की स्तुति चंद्रदेव की महिमा का गान करती है और यज्ञों में उनका आह्वान करती है। यही कारण है कि कार्तिक मास में चंद्रपूजा को सौभाग्य, ऐश्वर्य और सिद्धि प्राप्ति का माध्यम माना गया है.


निष्कर्ष

(Disclaimer: यह खबर पारंपरिक धार्मिक मान्यताओं और पौराणिक कथाओं पर आधारित हैं. News Media इसकी पुष्टि नहीं करता है.)