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जातीय उत्पीड़न: एक गंभीर सामाजिक मुद्दा

जातीय उत्पीड़न के मामलों की चर्चा अक्सर होती है, लेकिन क्या ये चर्चाएं किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुंचती हैं? हरियाणा के आईपीएस अधिकारी वाई. पूरन कुमार की आत्महत्या और मध्य प्रदेश की हालिया घटना ने इस मुद्दे को फिर से उजागर किया है। क्या भारतीय समाज में जातिवाद का प्रभाव खत्म होगा? जानिए इस गंभीर विमर्श के बारे में।
 

जातीय उत्पीड़न की घटनाएं

जातीय उत्पीड़न के मामले अक्सर चर्चा का विषय बनते हैं। जब तक मामला शांत नहीं होता, यह सवाल उठता है कि आज भी जातिगत भेदभाव किस हद तक व्याप्त है।


हरियाणा कैडर के आईपीएस अधिकारी वाई. पूरन कुमार की आत्महत्या को संस्थागत जातीय उत्पीड़न का उदाहरण माना जा रहा है। उन्होंने 7 अक्टूबर को चंडीगढ़ में अपने घर पर आत्महत्या की। अपने सुसाइड नोट में, उन्होंने 15 वरिष्ठ अधिकारियों पर मानसिक उत्पीड़न और जातिगत भेदभाव के गंभीर आरोप लगाए। यह मामला राजनीतिक रूप से भी संवेदनशील हो गया है। इसी दौरान मध्य प्रदेश में एक घटना भी सामने आई है, जिसमें दमोह जिले में एक ओबीसी युवक को कथित तौर पर एक ब्राह्मण का पैर धोने के लिए मजबूर किया गया। इस घटना का वीडियो वायरल होने के बाद सामाजिक संगठनों ने विरोध प्रदर्शन किया।


ये घटनाएं कोई नई नहीं हैं। विभिन्न क्षेत्रों और गांवों से जातीय उत्पीड़न के मामले लगातार सामने आते रहते हैं। जब तक मामला ठंडा नहीं होता, तब तक यही चर्चा होती है कि भारतीय समाज में जातिवाद और जातिगत भेदभाव का प्रभाव बना हुआ है। लेकिन ये चर्चाएं कभी किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचतीं। कुछ जातियों को उत्पीड़क बताकर या 'सदियों से चल रहे जातीय उत्पीड़न' की बात कर 'इंसाफ के पैरोकार' आगे बढ़ जाते हैं। वे यह नहीं पूछते कि पिछले सौ-डेढ़ सौ साल से इसी तरह की चर्चाएं चलने, संविधान में भेदभाव समाप्त करने के स्पष्ट प्रावधान होने और साढ़े तीन दशकों से 'सामाजिक न्याय' की राजनीति के बावजूद हालात क्यों नहीं बदले हैं?


ये सवाल कठिन और असहज हैं। जब इनकी गहराई में जाएंगे, तो यह स्पष्ट होगा कि जातिगत पहचान और प्रतिनिधित्व को 'सामाजिक न्याय' का पर्याय मानकर इसके पैरोकारों ने विमर्श को जातिवाद पर केंद्रित कर दिया है। इससे वंचित समूहों के बीच एकता और समाज के आधुनिकीकरण की संभावनाएं कमजोर हो गई हैं। नतीजतन, 'जाति के विनाश' का लक्ष्य पीछे छूट गया है, जिसे आधुनिक भारत के निर्माण की परियोजना के केंद्र में रखा गया था। इससे कुछ नेता-परिवारों और मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों को लाभ हुआ है, लेकिन जातिवाद और जमीनी स्तर पर जातीय भेदभाव को समाप्त करने का मार्ग बाधित ही हुआ है।