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दाह संस्कार के नियम: छोटे बच्चों का अंतिम संस्कार क्यों नहीं किया जाता?

इस लेख में हम जानेंगे कि हिंदू धर्म में छोटे बच्चों का दाह संस्कार क्यों नहीं किया जाता। गरुड़ पुराण के अनुसार, शिशुओं की आत्मा का शरीर से कोई मोह नहीं होता, जिससे उन्हें दाह संस्कार की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसके अलावा, साधु-संतों के दाह संस्कार की परंपरा भी चर्चा का विषय है। जानें इस विषय पर और अधिक जानकारी।
 

गरुड़ पुराण में मृत्यु और उसके बाद की स्थिति का वर्णन


गरुड़ पुराण में मृत्यु और उनके बाद की स्थिति का किया गया है उल्लेख


दाह संस्कार के नियम: हिंदू धर्म में अंतिम संस्कार, 16 संस्कारों में से एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसे आत्मा के बंधनों से मुक्ति का माध्यम माना जाता है। हालांकि, छोटे बच्चों का दाह संस्कार नहीं किया जाता। गरुड़ पुराण में व्यक्ति के कर्मों का विस्तृत वर्णन है और यह भी बताया गया है कि जन्म और मृत्यु के बाद की स्थिति क्या होती है। आइए जानते हैं कि गरुड़ पुराण के अनुसार शिशुओं का दाह संस्कार क्यों नहीं किया जाता।


आत्मा का शरीर से मोह समाप्त होना

दाह संस्कार का मुख्य उद्देश्य आत्मा का शरीर से मोह समाप्त करना है, ताकि उसे मुक्ति मिल सके। इस प्रक्रिया के माध्यम से आत्मा सभी शारीरिक बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष की ओर अग्रसर होती है।


शरीर के निर्माण के तत्व

गरुड़ पुराण में यह भी बताया गया है कि मानव शरीर पांच तत्वों - पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश से बना होता है। दाह संस्कार के दौरान शरीर को अग्नि में समर्पित किया जाता है, जिससे यह तत्वों में विलीन हो जाता है और आत्मा को शांति मिलती है।


छोटी उम्र में मोह-माया का अभाव

गरुड़ पुराण के अनुसार, गर्भ में पल रहे शिशु या 5 साल से कम उम्र के बच्चे की मृत्यु पर दाह संस्कार नहीं किया जाता। इसका कारण यह है कि इतनी छोटी उम्र में मोह-माया की भावना नहीं होती। ये बच्चे सभी प्रकार के पाप और पुण्य के बंधनों से मुक्त होते हैं।


इसलिए, आत्मा को शरीर से कोई लगाव नहीं होता और वह आसानी से शरीर को छोड़ देती है। इसीलिए दाह संस्कार की आवश्यकता नहीं रह जाती। हिंदू धर्म में नवजात शिशु या छोटे बच्चे का दाह संस्कार न करके उसे दफनाया जाता है या उसके मृत शरीर को किसी नदी में विसर्जित किया जाता है।


साधु-संतों का दाह संस्कार

छोटे बच्चों के अलावा साधु-संतों का भी दाह संस्कार नहीं किया जाता। इसका कारण यह है कि साधु-संत अपने जीवन में सभी सांसारिक सुखों और मोह-माया का त्याग कर देते हैं। वे तप और साधना के माध्यम से अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। इसलिए, साधु-संतों के पार्थिव शरीर को दफनाने की परंपरा है।


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