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शक्ति का असली अर्थ: गुरु अर्जुन देव जी की शिक्षाएँ

इस लेख में गुरु अर्जुन देव जी की शिक्षाओं के माध्यम से यह बताया गया है कि असली शक्ति दूसरों को उठाने में होती है, न कि गिराने में। एक पहलवान की कहानी के माध्यम से यह समझाया गया है कि बल का सही उपयोग क्या होना चाहिए। जानें कैसे भगवान शिव और श्रीराम जी भी इस विचार को साझा करते हैं।
 

शक्ति और सम्मान का महत्व

इस संसार में अनगिनत मनुष्य जन्म लेते हैं, लेकिन उनमें से कितने ही ऐसे होते हैं जो दिव्यता को प्राप्त करते हैं, यह सोचने का विषय है।




एक बार, श्री गुरु अर्जुन देव जी के दरबार में एक पहलवान आया। वह पहलवान ऐसा था जिसने कभी भी कोई दंगल नहीं हारा। उसकी शक्ति का डंका दूर-दूर तक बजता था। उसके नाम से ही बड़े-बड़े पहलवान डरकर भाग जाते थे। जब वह गुरु जी के पास आया, तो उसने प्रणाम किया, लेकिन उसमें एक अकड़ थी। गुरु जी ने उससे पूछा, 'तुम इतने बलशाली हो, क्या करते हो?'




पहलवान ने उत्तर दिया, 'मैं पहलवान हूँ और कुश्ती लड़ता हूँ। मेरे सामने जो भी आता है, मैं उसे पलटकर गिरा देता हूँ। मेरा गिराया हुआ व्यक्ति जीवन भर नहीं उठ पाता।'




गुरु अर्जुन देव जी ने मुस्कुराते हुए कहा, 'हे पहलवान! हम तुम्हारी शक्ति का सम्मान करते हैं, लेकिन इस बल का क्या लाभ, यदि यह किसी को गिराने में ही प्रयोग होता है? असली बल वह है, जो किसी को ऊपर उठाने में लगे। तुम्हारा कौशल दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाला है, इसलिए इस दरबार में इसका कोई महत्व नहीं।'




भगवान शिव भी देवी पार्वती से कहते हैं,




‘कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती।


सुनि हरिचरित न जो हरषाती।।


गिरिजा सुनहु राम कै लीला।


सुर हित दनुज बिमाहनसीला।।’




अर्थात, हे पार्वती! जो व्यक्ति सोचता है कि उसकी छाती सबसे चौड़ी है, उसे समझना चाहिए कि केवल चौड़ी छाती से कल्याण नहीं होता। यदि उस छाती में हृदय संकीर्ण है, तो उसका क्या लाभ? यदि वह प्रभु के गुणों को सुनकर प्रसन्न नहीं होता, तो वह छाती वज्र के समान है।




जब भगवान श्रीराम जी ने श्रीहनुमान जी से पहली बार भेंट की, तो उन्होंने उन्हें अपनी छाती से लगा लिया। क्योंकि वे जानते थे कि श्रीहनुमान जी उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। क्या उनकी शक्ति इतनी कम थी कि वे सुग्रीव के चौकीदार बनते? सुग्रीव ने उन्हें इसी उद्देश्य से रखा था। लेकिन सुग्रीव को नहीं पता था कि श्रीहनुमान जी वास्तव में श्रीराम जी की बाट जोह रहे थे।




इस प्रकार, जो भक्त हमेशा प्रभु के हृदय में बसते हैं, उन्हें प्रभु भी अपनी छाती से लगाते हैं। उनका स्थान हमेशा हमारे दिल में होता है।




क्रमशः




- सुखी भारती