ओशो के विचार: अहंकार को समझने और स्वीकारने की कला
अहंकार का गहरा अर्थ
अहंकार, जिसे हम 'मैं' की भावना के रूप में जानते हैं, मानव अस्तित्व का एक गहरा तत्व है। यह विषय सदियों से धर्म, दर्शन और मनोविज्ञान में चर्चा का केंद्र रहा है। अधिकांश आध्यात्मिक परंपराएं यह मानती हैं कि मुक्ति के लिए अहंकार का त्याग आवश्यक है। लेकिन ओशो रजनीश, एक अद्वितीय आध्यात्मिक विचारक, इस धारणा को चुनौती देते हैं। उनके अनुसार, अहंकार को छोड़ना संभव नहीं है, क्योंकि त्याग करने वाला स्वयं अहंकार है।
ओशो की दृष्टि में अहंकार
ओशो के अनुसार, अहंकार एक वस्तु नहीं है जिसे आप छोड़ दें, बल्कि यह आपके 'स्व' के अज्ञान की छाया है। जब आप अपनी पहचान को नहीं जानते, तब आप एक छवि बनाते हैं - 'मैं यह हूं', 'मैं बड़ा हूं', 'मैं खास हूं।' यह 'मैं' ही अहंकार है। यह आपकी छवि का निर्माण करता है, जो समाज, परिवार और अनुभवों से प्रभावित होती है, लेकिन यह वास्तविकता नहीं है। ओशो इसे एक नकली पहचान मानते हैं, जो हमारी असली प्रकृति को छुपा देती है। जब आप कहते हैं 'मैंने अहंकार छोड़ दिया', तब भी वह 'मैं' बोल रहा है - यानी अहंकार एक और refined रूप में लौट आया है। ओशो मजाक में कहते हैं, 'अब वह कहता है - देखो, मैं बहुत विनम्र हो गया हूं, मैं अहंकारहीन हो गया हूं - और यही सबसे बड़ा अहंकार है।
त्याग की बजाय समझ की आवश्यकता
ओशो स्पष्ट करते हैं कि अहंकार को त्यागना आसान नहीं है। इसे दबाने से यह और मजबूत हो जाता है। जब आप इसे हटाने की कोशिश करते हैं, तो यह एक नए रूप में प्रकट होता है - कभी धार्मिकता के रूप में, कभी विनम्रता के मुखौटे में। वह कहते हैं, 'अहंकार को देखो, समझो - और जैसे ही तुम उसे पूरे होश से देखोगे, वह स्वयं गिर जाएगा।' यह आत्मबोध की प्रक्रिया है - इसे नष्ट नहीं किया जाता, बल्कि यह 'गिर' जाता है क्योंकि इसकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है।
अहंकार की पहचान
ओशो का कहना है कि अहंकार के कई चेहरे होते हैं। कभी यह शक्ति और वर्चस्व के रूप में प्रकट होता है, कभी त्याग और तपस्या के रूप में, तो कभी गरीब दिखने के गौरव में भी। ओशो कहते हैं, 'कोई अमीरी पर अहंकार करता है, कोई फकीरी पर। कोई ज्ञान पर अहंकार करता है, कोई अज्ञान पर। कोई कहता है - मैं जानता हूं, और कोई कहता है - मैं नहीं जानता, लेकिन दोनों में 'मैं' बना रहता है।' इसलिए ओशो हमें चेताते हैं कि हम अहंकार को केवल उसके पारंपरिक रूपों में न पहचानें। विनम्रता में छुपा हुआ अहंकार सबसे खतरनाक होता है, क्योंकि वह धार्मिकता का लबादा ओढ़ लेता है।
मुक्ति का मार्ग
ओशो के अनुसार, अहंकार से मुक्ति का एकमात्र उपाय ध्यान है। वह कहते हैं कि ध्यान में जब आप 'कर्ता' को गिरा देते हैं - तब केवल शुद्ध चेतना बचती है। उसमें 'मैं हूं' नहीं होता, केवल अस्तित्व होता है। वहां न तुलना होती है, न महत्वाकांक्षा, न कोई छवि। ध्यान का अर्थ है - जागृति से जीना, हर क्षण अपने भीतर जो भी घट रहा है, उसे देखना। जैसे ही आप अहंकार को क्रोध, ईर्ष्या, धार्मिकता या ज्ञान में पकड़ना शुरू करते हैं - वह धीरे-धीरे कमजोर होने लगता है, क्योंकि उसकी शक्ति अज्ञान से आती है।
ओशो का अनूठा दृष्टिकोण
ओशो के विचार पारंपरिक मान्यताओं से भिन्न हैं। वह धार्मिक दिखावे, झूठे त्याग और सामाजिक नैतिकता पर सवाल उठाते हैं। वह कहते हैं, 'तुम जितना अधिक त्याग का अभिनय करोगे, उतना ही भीतर अहंकार गहराता जाएगा। केवल सत्य की रोशनी ही इसका अंत है।' उनके अनुसार, 'त्याग' भी एक अहंकारी क्रिया हो सकती है, यदि वह चेतना से नहीं आती। इसलिए उन्हें अहंकार से लड़ाई नहीं चाहिए, बल्कि उसके अस्तित्व की शांत, होशपूर्वक स्वीकृति चाहिए - जिससे वह स्वतः मिट जाए।
ओशो का संदेश
ओशो का संदेश स्पष्ट है - अहंकार कोई ठोस वस्तु नहीं है जिसे तोड़ा जा सके या फेंका जा सके। यह एक भ्रम है, एक छाया है, जो केवल आत्मज्ञान से हट सकती है। यह ज्ञान कोई पढ़ाई नहीं, बल्कि अनुभव है - जो ध्यान और स्वयं की गहराई में उतरने से आता है। जब आप 'मैं' को बिना किसी प्रयास के देखना शुरू करते हैं - बस साक्षी भाव से - तब वह 'मैं' धीरे-धीरे अदृश्य हो जाता है। ओशो हमें सिखाते हैं कि आत्ममुक्ति कोई कार्य नहीं, बल्कि एक जागृति है। और जैसे ही आप जागते हैं - अहंकार की नींद टूट जाती है। यही ओशो की अध्यात्म की सच्ची क्रांति है - जिसे न कोई धर्म चाहिए, न कोई परंपरा - बस होश चाहिए।