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नारद मुनि की कामना: विश्वमोहिनी की ओर आकर्षण

इस लेख में नारद मुनि की कथा का वर्णन किया गया है, जिसमें उनकी विरक्ति के बावजूद विश्वमोहिनी के प्रति आकर्षण जागृत होता है। मुनि की जिज्ञासा और श्रीहरि की सहायता की तलाश के बीच, यह कहानी एक गहन द्वंद्व को उजागर करती है। क्या नारद मुनि सच में श्रीहरि को बुलाते हैं? जानने के लिए पढ़ें पूरी कहानी।
 

नारद मुनि का द्वंद्व

नारद मुनि के मन में विरक्ति का प्रकाश था, लेकिन जब उन्होंने विश्वमोहिनी की भाग्यरेखा देखी, तो उनके भीतर कामना और लोभ का संचार हो गया। जो मुनि संसार को नश्वरता का उपदेश देते थे, वही अब अमरत्व की चाह रखने लगे।


‘जो एहि बरइ अमर सोइ होई।


समरभूमि तेहि जीत न कोई।।


सेवहिं सकल चराचर ताही।


बरइ सीननिधि कन्या जाही।।’


भाग्यरेखा यह संकेत कर रही थी कि जो विश्वमोहिनी का चयन करेगा, वही अजर-अमर होगा और रणभूमि में अजेय रहेगा। यह सुनकर नारद के नेत्र आश्चर्य से भर गए, लेकिन उन्होंने अपने मन की भावनाओं को छिपाए रखा। उन्हें डर था कि यदि विश्वमोहिनी के लक्षण प्रकट हो गए, तो अयोग्य लोग भी स्वयंवर में शामिल हो जाएंगे। मुनि की इच्छा थी कि प्रतियोगियों की संख्या कम हो।


कन्या को पाने की इच्छा

इस विचार के बीच एक ही भावना प्रबल थी—कन्या को किसी भी तरह पाना है।


वे सोचने लगे, "मैं तो तप और साधना में सिद्ध मुनि हूँ। यदि मैं स्वयंवर में जाऊं, तो कन्या मुझे प्रणाम करके आगे बढ़ जाएगी। कहीं ऐसा न हो कि वह मुझे पिता के समान मान ले! स्पष्ट है कि केवल तप से कुछ नहीं होगा। तो, हे विधाता, इस कन्या को कैसे पाऊँ?"


‘करौं जाइ सोइ जतन बिचारी।


जोहि प्रकार मोहि बरै कुमारी।।


जप तप कछु न होइ तेहि काला।


हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला।।’


मुनि ने सोचा, "काश! मेरा रूप ऐसा होता कि कन्या मुझ पर मोहित हो जाती। मेरा रूप ऐसा होना चाहिए कि विश्वमोहिनी दौड़कर मेरे पास आए और वरमाला मेरे गले में डाल दे।"


श्रीहरि की सहायता

इस कठिन समय में उन्हें एक ही सहायक दिखाई दिया—श्रीहरि।


उनका मन बोला, "मुझे प्रभु के पास जाना चाहिए और उनसे कहना चाहिए कि वे अपनी सुंदरता मुझे दें।" लेकिन अगले ही क्षण उनका विचार बदल गया, "नहीं! उनसे मिलने में समय बर्बाद होगा। जब तक मैं लौटूंगा, स्वयंवर समाप्त हो जाएगा। लेकिन उनके बिना मेरा हित करने वाला कोई और नहीं है!"


लीलाधर की लीला अद्भुत है—आज वही नारद, जो पहले राग-द्वेष से परे थे, अब सोच रहे थे कि प्रभु तक जाने में समय बर्बाद होगा। जिनके लिए हरि-स्मरण सर्वोच्च साधना थी, आज उन्हें वह समय की हानि लगने लगा।


जप-तप के विषय में वे स्वयं कह चुके थे—


‘जप तप कछु न होइ तेहि काला।’


माया का यह कैसा प्रबल प्रभाव!


जिस जप-तप के बल पर वे त्रिलोक में सम्मानित थे, वही आज उन्हें निष्फल लग रहा था।


निष्कर्ष

अंततः उन्होंने निर्णय लिया, "प्रभु के पास जाने में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए; क्यों न उन्हें यहाँ बुला लिया जाए?"


अब सवाल यह है—क्या नारद मुनि सच में श्रीहरि को बुलाते हैं? और यदि ऐसा करते हैं, तो क्या श्रीहरि तुरंत प्रकट होते हैं?


यह जानेंगे—अगले अंक में।


क्रमशः…


- सुखी भारती