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महिला सरपंचों की वास्तविकता: घूंघट और पुरुष अहंकार का प्रभाव

हरियाणा के करसोला गांव में एक पोस्टर ने महिला सरपंचों की स्थिति को उजागर किया है, जहां वे केवल नाम की नेता बनकर रह जाती हैं। इस लेख में चर्चा की गई है कि कैसे पुरुषों का अहंकार और परंपराएं महिलाओं की आवाज़ को दबा देती हैं। क्या होगा जब महिलाएं सच में निर्णय लेने लगेंगी? यह लेख इस बदलाव की संभावनाओं और लोकतंत्र की मजबूती पर विचार करता है।
 

महिला सरपंचों की स्थिति


दीपिका लाठर सिंह | हाल ही में हरियाणा के जुलाना क्षेत्र के करसोला गांव में एक पोस्टर देखा गया, जिसमें महिला सरपंच को घूंघट में दर्शाया गया और उनके पति को असली सरपंच बताया गया। यह केवल एक तस्वीर नहीं, बल्कि उस मानसिकता का प्रतीक है जिसमें महिलाएं चुनाव जीतने के बावजूद निर्णय लेने का अधिकार अपने पतियों या पुरुष रिश्तेदारों को सौंप देती हैं।


दीपिका लाठर सिंह, स्वतंत्र टिप्पणीकार।


पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें हैं ताकि वे राजनीति और प्रशासन में सक्रिय भूमिका निभा सकें। संविधान का उद्देश्य था कि महिलाएं घर की सीमाओं से बाहर निकलकर गांव की दिशा निर्धारित करें। लेकिन वास्तविकता में, अक्सर महिला केवल नाम की सरपंच बनकर रह जाती है, जबकि पंचायत का कार्यभार उनके पति संभालते हैं।


यह स्पष्ट है कि कानून में बदलाव करना आसान है, लेकिन समाज की सोच में बदलाव लाना कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण है। हरियाणा के कई गांवों में यही स्थिति देखने को मिलती है। महिला सरपंच कागजों पर होती है, लेकिन पंचायत की बैठक में पुरुषों की आवाज़ ही प्रमुख होती है। सरकारी अधिकारियों से बातचीत और निर्णय लेना भी पुरुषों का काम होता है।


इससे महिलाएं केवल प्रतीक बनकर रह जाती हैं। गांव की जनता भी असली नेता को पुरुष मान लेती है। यही कारण है कि 'सरपंचपति' जैसे शब्द आम भाषा का हिस्सा बन चुके हैं। यह समस्या केवल परंपरा का परिणाम नहीं है, बल्कि इसमें पुरुषों का अहंकार भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। गांव के ढांचे में सत्ता को पुरुष का अधिकार माना जाता है। जब महिला सरपंच बनती है, तो कई पुरुषों को यह अपने अहंकार पर चोट लगती है।


हरियाणा में घूंघट को आज भी इज्ज़त और परंपरा से जोड़ा जाता है, लेकिन पंचायत और नेतृत्व की स्थिति में यह महिला की पहचान को छिपाने का साधन बन जाता है। जब सरपंच घूंघट में पंचायत करती है, तो उसका आत्मविश्वास कमज़ोर पड़ जाता है। लोग मान लेते हैं कि वह खुलकर बोल नहीं सकती। इस तरह घूंघट केवल कपड़े का टुकड़ा नहीं, बल्कि महिलाओं की आवाज़ पर पड़ा एक पर्दा है।


कल्पना कीजिए, अगर महिलाएं सच में सरपंच की कुर्सी पर बैठकर फैसले लें, तो गांव का चेहरा कैसा होगा? प्राथमिकता पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों को मिलेगी। भ्रष्टाचार और निजी स्वार्थ पर अंकुश लगेगा, क्योंकि महिलाएं पारदर्शिता पर अधिक ध्यान देती हैं। अन्य महिलाएं और लड़कियां भी प्रेरित होंगी, जिससे समाज में समानता की सोच मजबूत होगी।


हालांकि, जब तक पुरुष अहंकार और घूंघट जैसी परंपराएं टूटेंगी नहीं, तब तक महिलाएं पंचायतों में केवल नाम की नेता बनकर रह जाएंगी। लेकिन जिस दिन महिलाएं आत्मविश्वास से फैसले लेंगी और समाज उन्हें असली नेता मानेगा, उस दिन लोकतंत्र सच में मजबूत होगा। असली लोकतंत्र वही है जहां हर आवाज़ सुनी जाए और हर फैसला उस नेता के हाथ में हो जिसे जनता ने चुना हो।


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