महाभारत का युद्ध: जब श्रीकृष्ण ने रथ का पहिया उठाया और भीष्म को चुनौती दी
महाभारत: धर्म और अधर्म की परीक्षा
महाभारत का युद्ध केवल दो राजवंशों के बीच संघर्ष नहीं था, बल्कि यह धर्म, निष्ठा और मर्यादा की एक कठिन परीक्षा थी। इस ऐतिहासिक युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने सारथी बनकर धर्म की रक्षा का मार्ग चुना, जबकि भीष्म पितामह जैसे अपराजेय योद्धा ने युद्ध भूमि में रौद्र रूप धारण किया। इस युद्ध से जुड़ी एक घटना आज भी लोगों में रोमांच और भक्ति की भावना जगाती है, वह क्षण जब श्रीकृष्ण ने रथ का पहिया उठाया और भीष्म पितामह की ओर दौड़े।
श्रीकृष्ण का निर्णय
महाभारत के युद्ध से पहले, जब दोनों पक्षों ने अपने सहयोगियों का चयन करना शुरू किया, तब पांडव और कौरव दोनों ही भगवान श्रीकृष्ण को अपने पक्ष में चाहते थे। लेकिन श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया कि वे इस युद्ध में हथियार नहीं उठाएंगे। उन्होंने कहा कि एक ओर उनकी नारायणी सेना होगी और दूसरी ओर वे स्वयं, लेकिन बिना शस्त्र के। दुर्योधन ने कृष्ण की सेना को चुना, जबकि पांडवों ने स्वयं श्रीकृष्ण को।
अर्जुन के सारथी बने श्रीकृष्ण
श्रीकृष्ण ने पांडवों के साथ खड़े होकर अर्जुन के रथ की बागडोर संभाली। हालांकि वे युद्ध में भाग नहीं ले रहे थे, लेकिन उनकी उपस्थिति पांडवों की सबसे बड़ी ताकत थी। पहले 10 दिनों तक कौरवों की सेना की कमान भीष्म पितामह के हाथों में थी। भीष्म, जिन्होंने अपने गुरु परशुराम से युद्ध विद्या सीखी थी, इतने शक्तिशाली थे कि अकेले ही युद्ध की दिशा बदल सकते थे। उन्होंने प्रण लिया था कि या तो पांचों पांडवों को युद्धभूमि में मार डालेंगे या भगवान श्रीकृष्ण को शस्त्र उठाने पर मजबूर कर देंगे।
जब श्रीकृष्ण ने रथ का पहिया उठाया
भीष्म के कहर से पांडवों की सेना में भगदड़ मच गई। अर्जुन भी भीष्म के सामने टिक नहीं पा रहे थे। यह देखकर श्रीकृष्ण का धैर्य टूट गया। उन्होंने सारथी की भूमिका छोड़कर रथ से कूद पड़े और एक टूटे हुए रथ के पहिए को हथियार की तरह उठाकर भीष्म की ओर दौड़ पड़े।
भीष्म का प्रण
श्रीकृष्ण को इस प्रकार आते देख भीष्म पितामह हाथ जोड़कर खड़े हो गए। उन्होंने कहा कि अब मेरा प्रण पूर्ण हुआ। मैंने कहा था कि या तो पांडव मरेंगे या आप अपना संकल्प तोड़ेंगे। अब आप शस्त्र रख दें। यह सुनकर श्रीकृष्ण शांत हो गए, पहिया नीचे रखा और पुनः सारथी के रूप में लौट आए।
भीष्म पितामह की अंतिम लड़ाई
भीष्म ने दस दिन तक कौरवों की सेना का नेतृत्व किया और अंततः अर्जुन के बाणों से गंभीर रूप से घायल हो गए। चूंकि उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था, उन्होंने सूर्य के उत्तरायण होने तक प्राण नहीं त्यागे और महाभारत के युद्ध के समाप्त होने के बाद ही देह त्यागी।