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भारत की जीवंत सांस्कृतिक परंपराएं: गवरी का महत्व

भारत की सांस्कृतिक परंपराएं, विशेषकर गवरी, आज भी जीवित हैं और भील समुदाय की पहचान का प्रतीक हैं। दिल्ली में हाल ही में आयोजित प्रदर्शनी ने इस परंपरा की गहराई और महत्व को उजागर किया। गवरी न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि सामाजिक मुद्दों को भी उजागर करती है। हालांकि, आधुनिकता के प्रभाव से युवा पीढ़ी में इसकी रुचि कम हो रही है। इस लेख में गवरी के संरक्षण की आवश्यकता और इसके महत्व पर चर्चा की गई है।
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भारत की जीवंत सांस्कृतिक परंपराएं: गवरी का महत्व

भारत की सांस्कृतिक विविधता

भारत की सांस्कृतिक परंपराएं न केवल विविध हैं, बल्कि गहराई में भी समृद्ध हैं। इनमें से कुछ परंपराएं समय के साथ कमजोर हो गई हैं, जबकि कई आज भी लोगों के दिलों में जीवित हैं। राजस्थान के भील समुदाय की गवरी परंपरा एक ऐसा उदाहरण है, जो धार्मिक आस्था, सामाजिक संवाद और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है।


दिल्ली में गवरी पर आधारित प्रदर्शनी

हाल ही में दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में 'देवी के साथ खेलना: मेवाड़ के भीलों की गवरी' शीर्षक से एक चित्र प्रदर्शनी आयोजित की गई। यह प्रदर्शनी न केवल कला का प्रदर्शन करती है, बल्कि भील समुदाय की जीवन दृष्टि, रीतिरिवाज और मिथकीय आस्थाओं का भी गहन दस्तावेज है। गवरी नृत्य-नाटक नहीं, बल्कि भील समाज की सामूहिक चेतना की अभिव्यक्ति है, जिसमें प्रकृति, देवत्व और समाज का समावेश होता है।


गवरी का आयोजन और प्रक्रिया

गवरी की शुरुआत भाद्रपद मास में होती है और यह चालीस दिनों तक चलने वाला कठिन व्रत है। इस दौरान भाग लेने वाले पुरुष कलाकार संयम का पालन करते हैं, जिसमें मांस, मदिरा और जूते-चप्पल का त्याग शामिल है। वे गांव-गांव जाकर 'खेल' नामक नाट्य प्रस्तुतियां देते हैं, जिनमें देवी पार्वती की आराधना की जाती है।


गवरी में सामाजिक मुद्दों का समावेश

गवरी की प्रस्तुतियों में धार्मिक कथाओं के साथ-साथ सामाजिक यथार्थ भी शामिल होते हैं। नाटकों में कृषि वित्त, लालची बिचौलियों और भ्रष्ट व्यापारियों जैसे विषयों पर तीखे संवाद होते हैं। यह परंपरा महिलाओं और बेटियों के सम्मान को भी महत्व देती है।


गवरी की अनोखी विशेषताएं

गवरी किसी औपचारिक मंच की मोहताज नहीं है, फिर भी यह दर्शकों को आकर्षित करती है। मांदल की थाप और सामूहिक स्वर दर्शकों को साधना के स्तर तक ले जाते हैं। इस परंपरा में देवी कालिका की पूजा होती है, जो ऊर्जा और नारी शक्ति का प्रतीक है।


गवरी का विषय और प्रस्तुति

गवरी प्रदर्शन आमतौर पर 'दैत्य पर दैवीय विजय' के विषय पर आधारित होते हैं। ये प्रस्तुतियां विभिन्न आयु वर्ग के पुरुषों द्वारा की जाती हैं, जो जीवन के गूढ़ संदेशों को समाहित करती हैं। भील समुदाय का मानना है कि देवी के आशीर्वाद से अनेक रोग समाप्त हो सकते हैं।


गवरी की सांस्कृतिक यात्रा

प्रसिद्ध फोटोग्राफर ओल्वे ने 'मेवाड़ के भीलों की गवरी: देवी के साथ क्रीड़ा' नामक त्रै खण्डीय श्रृंखला तैयार की है। यह श्रृंखला भील समुदाय की भावनाओं और सौंदर्यबोध को जीवंत करती है। गवरी जैसी परंपराएं हमें याद दिलाती हैं कि भारत की सांस्कृतिक विविधता आज भी जीवित है।


परंपराओं की उपस्थिति का महत्व

गवरी जैसी परंपराएं हमें अपनी जड़ों की ओर लौटने का निमंत्रण देती हैं। यह परंपरा न केवल भील समाज की है, बल्कि समूची मानव सभ्यता की चेतना का प्रतिनिधित्व करती है। हालांकि, आधुनिकता और वैश्वीकरण ने इस परंपरा को चुनौतियों का सामना कराया है।


भील जनजाति के युवाओं की रुचि

भील जनजाति के युवा अब इस परंपरा में कम रुचि ले रहे हैं और पारंपरिक कलाओं को सीखने के बजाय मजदूरी को प्राथमिकता दे रहे हैं। इससे गवरी प्रदर्शन और उससे जुड़ी सांस्कृतिक धरोहर के स्वरूप विलुप्ति के कगार पर पहुंच रहे हैं।


गवरी के संरक्षण की आवश्यकता

गवरी के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त करना आवश्यक है। इसके दस्तावेजीकरण, डिजिटलीकरण और व्यापक प्रसार की आवश्यकता है। गैर-सरकारी संगठनों द्वारा इस परंपरा को संरक्षित करने के लिए ठोस प्रयास किए जाने चाहिए।