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उत्तराखंड में दीपावली: एक महीने का उत्सव

उत्तराखंड में दीपावली केवल एक दिन का पर्व नहीं है, बल्कि यह पूरे महीने तक चलने वाला उत्सव है। कार्तिक अमावस्या से शुरू होकर, यह पर्व विभिन्न नामों से मनाया जाता है, जिसमें मंगसीर दीपावली और इगास बग्वाल शामिल हैं। इस लेख में उत्तराखंड की अनोखी परंपराओं, सांस्कृतिक विविधता और पर्व के पीछे की पौराणिक कथाओं का वर्णन किया गया है। जानें कैसे यह पर्व राज्य की संस्कृति और धार्मिक आस्था का प्रतीक है।
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उत्तराखंड में दीपावली: एक महीने का उत्सव

उत्तराखंड की दीपावली


उत्तराखंड में दीपावली: उत्तराखंड में दीपावली केवल एक दिन का उत्सव नहीं है, बल्कि यह पूरे महीने तक चलने वाला एक विशेष पर्व है। यहां दीपावली की शुरुआत कार्तिक अमावस्या से होती है। इसे विभिन्न स्थानों पर मंगसीर दीपावली, बूढ़ी दीपावली या इगास बग्वाल के नाम से भी जाना जाता है। इस पर्व की जड़ें भगवान राम की लंका विजय की पौराणिक कथा से जुड़ी हुई हैं। देवभूमि के रूप में प्रसिद्ध यह राज्य अपनी अनोखी परंपराओं और सांस्कृतिक विविधता के कारण दीपावली को खास तरीके से मनाता है।


कार्तिक अमावस्या की रात को उत्तराखंड के शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में पारंपरिक दीपावली मनाई जाती है। इस दिन घरों की सफाई, लक्ष्मी-गणेश की पूजा, दीप जलाना और मिठाइयों का वितरण किया जाता है। कुमाऊं क्षेत्र की महिलाएं ऐपण कला के माध्यम से शुभता और समृद्धि के प्रतीक चित्र बनाती हैं, जो लाल मिट्टी और चावल के घोल से बनाए जाते हैं।


पहाड़ों की दीपावली

इगास बग्वाल पर्व, जिसे पहाड़ की दीपावली भी कहा जाता है, कार्तिक अमावस्या के 11 दिन बाद गढ़वाल और कुमाऊं में मनाया जाता है। कहा जाता है कि भगवान राम की लंका विजय की सूचना पहाड़ों तक 11 दिन बाद पहुंची थी, इसलिए यह पर्व उसी दिन मनाया जाता है। इस अवसर पर लोग भैलो, यानी चीड़ या देवदार की लकड़ी से बने मशाल जलाकर एकत्र होते हैं। लोकगीत, नृत्य और सामूहिक उत्सव इस पर्व की विशेषता हैं। इस दिन पशुओं की पूजा की जाती है और घरों में चूड़ा-दूध, अर्सा, पूरी-पकौड़े जैसे पारंपरिक व्यंजन बनाए जाते हैं। अब उत्तराखंड के लोग इसे देश-विदेश में भी मनाने लगे हैं।


वीरता और उल्लास का प्रतीक

उत्तराखंड के ऊंचे क्षेत्रों जैसे टिहरी, बागेश्वर, चंपावत और जौनसार बावर में दीपावली 'मंगसीर बग्वाल' के रूप में कार्तिक अमावस्या के एक महीने बाद मनाई जाती है। इसे बूढ़ी दीपावली भी कहा जाता है। लोककथाओं के अनुसार, इन दुर्गम क्षेत्रों में भगवान राम की विजय की खबर देर से पहुंची थी। इस दिन लोग जलते लकड़ी के गोले (भैला) घुमाते हैं, जो वीरता और उल्लास का प्रतीक है।


इतिहास से जुड़ी एक मान्यता

एक मान्यता के अनुसार, गढ़वाल नरेश महिपत शाह के समय वीर माधो सिंह भंडारी ने तिब्बती लुटेरों को पराजित किया था, और उनकी विजय के उपलक्ष्य में मंगसीर बग्वाल मनाने की परंपरा शुरू हुई। आज भी गांवों में दीपक, लोकगीत और नृत्य की परंपरा जीवित है। शहरीकरण के बावजूद, राज्य सरकार और सामाजिक संगठन इगास बग्वाल जैसे पर्वों को सांस्कृतिक धरोहर के रूप में बढ़ावा दे रहे हैं। यह पर्व उत्तराखंड की सामूहिक संस्कृति, लोककला और धार्मिक आस्था का अद्भुत उदाहरण है।