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शिव और पार्वती का विवाह: एक दिव्य कथा

इस लेख में शिव और पार्वती के विवाह की अद्भुत कथा का वर्णन किया गया है। यह कथा प्रेम, भक्ति और दिव्यता से भरी हुई है, जिसमें शिवजी और पार्वतीजी के विवाह की सभी विशेषताएँ शामिल हैं। जानिए कैसे हिमाचल पर्वत ने शिवजी को अपनी पुत्री पार्वती का हाथ सौंपा और इस दिव्य विवाह में देवताओं का हर्ष और आनंद कैसे छाया। यह कथा न केवल धार्मिक महत्व रखती है, बल्कि जीवन में प्रेम और समर्पण के महत्व को भी उजागर करती है।
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शिव और पार्वती का विवाह: एक दिव्य कथा

शिवजी का विवाह

श्री रामचन्द्राय नम:




पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं


मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।


श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये


ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः




शिवजी का विवाह 


दोहा :


मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।


कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥




मुनियों की आज्ञा से शिवजी और पार्वतीजी ने गणेशजी का पूजन किया। देवताओं को अनादि समझकर कोई भी इस बात को सुनकर संदेह न करे कि गणेशजी तो शिव-पार्वती की संतान हैं, विवाह से पूर्व वे कहाँ से आ गए?


 


चौपाई :


जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥


गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥




वेदों में विवाह की जो विधि बताई गई है, महामुनियों ने वही सब विधि करवाई। पर्वतराज हिमाचल ने हाथ में कुश लेकर तथा कन्या का हाथ पकड़कर उन्हें भवानी (शिवपत्नी) जानकर शिवजी को समर्पित किया।


पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥


बेदमन्त्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥




जब महेश्वर शिवजी ने पार्वती का पाणिग्रहण किया, तब इन्द्रादि सभी देवता हृदय में बड़े हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमंत्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिवजी का जय-जयकार करने लगे।


 


बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥


हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥




अनेकों प्रकार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई। शिव-पार्वती का विवाह सम्पन्न हो गया। सारे ब्रह्माण्ड में आनंद छा गया।


 


दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥


अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥




दासी, दास, रथ, घोड़े, हाथी, गायें, वस्त्र और मणि आदि अनेक प्रकार की चीजें, अन्न तथा सोने के बर्तन गाड़ियों में लदवाकर दहेज में दिए गए, जिनका वर्णन नहीं हो सकता।


 


छन्द :


दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।


का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥


सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।


पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥




बहुत प्रकार का दहेज देकर, फिर हाथ जोड़कर हिमाचल ने कहा- हे शंकर! आप पूर्णकाम हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ? (इतना कहकर) वे शिवजी के चरणकमल पकड़कर रह गए। तब कृपा के सागर शिवजी ने अपने ससुर का सभी प्रकार से समाधान किया। फिर प्रेम से परिपूर्ण हृदय मैनाजी ने शिवजी के चरण कमल पकड़े और कहा-


 


दोहा :


नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।


छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥




हे नाथ! यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान प्यारी है। आप इसे अपने घर की टहलनी बनाइएगा और इसके सब अपराधों को क्षमा करते रहिएगा। अब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिए।


 


चौपाई :


बहु बिधि संभु सासु समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥


जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥




भावार्थ:- शिवजी ने बहुत तरह से अपनी सास को समझाया। तब वे शिवजी के चरणों में सिर नवाकर घर गईं। फिर माता ने पार्वती को बुला लिया और गोद में बिठाकर यह सुंदर सीख दी-


 


करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥


बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥




हे पार्वती! तू सदाशिवजी के चरणों की पूजा करना, नारियों का यही धर्म है। उनके लिए पति ही देवता है और कोई देवता नहीं है। इस प्रकार की बातें कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू भर आए और उन्होंने कन्या को छाती से चिपटा लिया।


 


कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहूँ सुखु नाहीं॥


भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥




फिर बोलीं कि विधाता ने जगत में स्त्री जाति को क्यों पैदा किया? पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता। यों कहती हुई माता प्रेम में अत्यन्त विकल हो गईं, परन्तु कुसमय जानकर दुःख करने का अवसर न जानकर उन्होंने धीरज धरा।


 


पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना॥


सब नारिन्ह मिलि भेंटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥




मैना बार-बार मिलती हैं और पार्वती के चरणों को पकड़कर गिर पड़ती हैं। बड़ा ही प्रेम है, कुछ वर्णन नहीं किया जाता। भवानी सब स्त्रियों से मिल-भेंटकर फिर अपनी माता के हृदय से जा लिपटीं।


 


छन्द :


जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।


फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥


जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।


सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥




पार्वतीजी माता से फिर मिलकर चलीं, सब किसी ने उन्हें योग्य आशीर्वाद दिए। पार्वतीजी फिर-फिरकर माता की ओर देखती जाती थीं। तब सखियाँ उन्हें शिवजी के पास ले गईं। महादेवजी सब याचकों को संतुष्ट कर पार्वती के साथ घर कैलास को चले। सब देवता प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा करने लगे और आकाश में सुंदर नगाड़े बजाने लगे।


 


दोहा :


चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।


बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥




तब हिमवान्‌ अत्यन्त प्रेम से शिवजी को पहुँचाने के लिए साथ चले। वृषकेतु (शिवजी) ने बहुत तरह से उन्हें संतोष कराकर विदा किया।


 


चौपाई :


तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥


आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥




पर्वतराज हिमाचल तुरंत घर आए और उन्होंने सब पर्वतों और सरोवरों को बुलाया। हिमवान ने आदर, दान, विनय और बहुत सम्मानपूर्वक सबकी विदाई की।


 


जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥


जगत मातु पितु संभु भवानी। तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी॥




जब शिवजी कैलास पर्वत पर पहुँचे, तब सब देवता अपने-अपने लोकों को चले गए। तुलसीदासजी कहते हैं कि पार्वतीजी और शिवजी जगत के माता-पिता हैं, इसलिए मैं उनके श्रृंगार का वर्णन नहीं करता।


 


करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥


हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥




शिव-पार्वती विविध प्रकार के भोग-विलास करते हुए अपने गणों सहित कैलास पर रहने लगे। वे नित्य नए विहार करते थे। इस प्रकार बहुत समय बीत गया।


 


जब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुरु समर जेहिं मारा॥


आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥




तब छ: मुखवाले पुत्र (स्वामिकार्तिक) का जन्म हुआ, जिन्होंने बड़े होने पर युद्ध में तारकासुर को मारा। वेद, शास्त्र और पुराणों में स्वामिकार्तिक के जन्म की कथा प्रसिद्ध है और सारा जगत उसे जानता है।


 


छन्द :


जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।


तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥


यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।


कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥




षडानन (स्वामिकार्तिक) के जन्म, कर्म, प्रताप और महान पुरुषार्थ को सारा जगत जानता है, इसलिए मैंने शिवजी के पुत्र का चरित्र संक्षेप में ही कहा है। शिव-पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री-पुरुष कहेंगे और गाएँगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मंगलों में सदा सुख पाएँगे।


 


शेष अगले प्रसंग में -------------




राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे ।


सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥




- आरएन तिवारी