Newzfatafatlogo

अनुपम खेर ने पिता की यादों में खोकर साझा की भावुक कहानी

अनुपम खेर ने हाल ही में अपने पिता के निधन की भावनात्मक यादों को साझा किया। उन्होंने बताया कि कैसे उनके पिता को एक अजीब बीमारी ने कमजोर कर दिया था और उनके अंतिम शब्द 'जिंदगी जीओ' थे। अनुपम ने अपने संघर्ष के दिनों को भी याद किया, जब उन्होंने 27 दिन बांद्रा स्टेशन पर बिताए। जानें उनकी कहानी और संघर्ष के बारे में और अधिक जानकारी।
 | 
अनुपम खेर ने पिता की यादों में खोकर साझा की भावुक कहानी

अनुपम खेर का संघर्ष और पिता की यादें

बॉलीवुड की चमक-दमक के पीछे कई सितारों की संघर्ष की कहानियाँ छिपी होती हैं। इनमें से कुछ कहानियाँ इतनी भावुक होती हैं कि सुनने वाले को भी आंसू आ जाते हैं। फिल्म इंडस्ट्री की चकाचौंध के पीछे का सच अक्सर कठिन होता है, खासकर उन लोगों के लिए जो इस क्षेत्र में नए होते हैं। अनुपम खेर की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। उन्होंने अपने बलबूते पर इस इंडस्ट्री में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया है। जब भी वह अपने संघर्ष के दिनों को याद करते हैं, उनकी आँखों में आंसू आ जाते हैं। एक बार उन्होंने अपने पिता के निधन की यादों को साझा किया, जो सुनकर वह खुद भी भावुक हो गए।


अनुपम खेर ने एक बार रजत शर्मा के शो 'आपकी अदालत' में अपनी ज़िंदगी के बारे में कई बातें साझा कीं। इस बातचीत में उन्होंने अपने पिता के अंतिम क्षणों को याद किया और बताया कि उनके पिता का निधन भूख के कारण हुआ था, क्योंकि वह एक गंभीर बीमारी से ग्रस्त थे।


पिता के अंतिम शब्द

अनुपम खेर ने नम आँखों से अपने पिता की याद करते हुए कहा कि उनके पिता को एक अजीब बीमारी हो गई थी, जिससे खाना उन्हें रेत जैसा और पानी तेजाब जैसा लगता था। इस कारण वह खाना नहीं खा पाते थे और धीरे-धीरे कमजोर होते गए। उनके अंतिम क्षणों को याद करते हुए अनुपम ने बताया कि उनके पास लिखने की भी ताकत नहीं बची थी, फिर भी उन्होंने कुछ लिखने की कोशिश की।


अनुपम खेर ने आगे बताया कि उनके पिता ने निधन से 20 मिनट पहले उन्हें पास बुलाया और कहा, 'जिंदगी जीओ।' यह सुनकर अनुपम को यह अविश्वसनीय लगा कि एक मरता हुआ इंसान जिंदगी जीने की सलाह दे रहा था।


अनुपम खेर का संघर्ष

अनुपम खेर ने अपने संघर्ष के दिनों को भी साझा किया, जिसमें उन्होंने बताया कि उन्होंने 27 दिन मुंबई के बांद्रा स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर बिताए थे। उन्होंने कहा कि उस समय पुलिस वाले उन्हें नहीं भगाते थे क्योंकि वह रात में 1:20 बजे सोते थे। एक पुलिसवाले की उन्होंने तारीफ की और बताया कि वह उसके बेटे से 4 साल तक मिले थे।


उन्होंने बताया कि उस समय फिल्म इंडस्ट्री का माहौल बहुत अलग था। काम न होने के बावजूद डायरेक्टर्स और राइटर्स से मिलना संभव था। एक दिन उनकी मुलाकात डायरेक्टर महेश भट्ट से हुई, जिसने उनके करियर के दरवाजे खोले। उनकी पहली फिल्म 'आगमन' 1982 में आई, लेकिन असली सफलता 1984 में महेश भट्ट की 'सारांश' से मिली, जो उनके करियर का टर्निंग प्वॉइंट साबित हुई।