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काजोल की फिल्म 'मां': एक माइथोलॉजिकल थ्रिलर की समीक्षा

काजोल की नई फिल्म 'मां' एक माइथोलॉजिकल थ्रिलर है, जो दर्शकों को एक अनोखी कहानी के साथ जोड़ती है। फिल्म में शैतान और मां के बीच संघर्ष को दिखाया गया है, लेकिन इसकी कहानी और स्क्रीनप्ले में कुछ कमजोरियां हैं। काजोल की अदाकारी प्रशंसा के योग्य है, लेकिन हॉरर के मामले में यह 'शैतान' के मुकाबले कमजोर साबित होती है। जानें फिल्म के बारे में और क्या खास है इसमें।
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काजोल की फिल्म 'मां': एक माइथोलॉजिकल थ्रिलर की समीक्षा

फिल्म 'मां' का परिचय

फिल्म 'मां' की समीक्षा: काजोल की नई फिल्म 'मां' का टीजर और ट्रेलर रिलीज होने के बाद से दर्शकों में इसके और 'शैतान' के बीच संबंधों को लेकर चर्चा हो रही है। हालांकि, दोनों फिल्मों के बीच केवल यह समानता है कि दोनों में शैतान बच्चों को अपना शिकार बनाता है। 'मां' को भारत की पहली माइथो हॉरर फिल्म के रूप में प्रस्तुत किया गया है, लेकिन वास्तव में यह एक माइथोलॉजिकल थ्रिलर है। ट्रेलर में दिखाए गए हॉरर सीक्वेंस फिल्म की 2 घंटे 15 मिनट की कहानी में हॉरर के बेहतरीन क्षणों का संकलन हैं। फिल्म में कई सरप्राइज और माइथोलॉजिकल तत्व हैं, लेकिन इसमें वह डर और कंपकंपी नहीं है जो 'शैतान' में देखने को मिला।


'मां' की कहानी

कहानी की शुरुआत शुभांकर और अंबिका की बेटी श्वेता से होती है, जो अपने पिता के गांव चंद्रपुर जाने की जिद करती है। लेकिन शुभांकर और अंबिका उससे चंद्रपुर के एक राज को छिपा रहे हैं, जो मां काली के रक्तबीज से जुड़ा है। यह रक्तबीज गांव की लड़कियों को अपना शिकार बना रहा है, जिनके पीरियड्स शुरू हुए हैं। शुभांकर की मृत्यु के बाद, श्वेता मजबूरी में चंद्रपुर पहुंचती है, जहां रक्तबीज फिर से अपना कहर फैलाने की कोशिश करता है।


कमजोर स्क्रीनप्ले

फिल्म की सबसे बड़ी खूबी इसका माइथोलॉजिकल कनेक्शन है, जिसमें सायवन क्वाद्रोस ने फिक्शन और माइथोलॉजी को इस तरह से पिरोया है कि दर्शकों को दादी-नानी की कहानियां याद आ जाती हैं। हालांकि, स्क्रीनप्ले में कुछ कमजोरियां हैं। कहानी को सेट करने में अधिक समय लगने के कारण फिल्म का पहला भाग धीमा हो जाता है। निर्देशक विशाल फुरिया ने उतने सरप्राइज या हॉरर मोमेंट्स नहीं बनाए हैं, जितने दर्शकों ने ट्रेलर के बाद उम्मीद की थी।


VFX का प्रभाव

फिल्म में VFX का काम अच्छा है, खासकर क्लाइमेक्स के दौरान जब शैतान और मां के बीच टक्कर होती है। काजोल का लुक और उनकी परफॉरमेंस दर्शकों को सीट से बांधे रखती है। इस क्लाइमेक्स में दर्शकों को एहसास होता है कि मां का असली अवतार यही है।


क्लाइमेक्स की छाप

चंद्रपुर की हवेली और जंगल के दृश्य को जिस खूबसूरती से शूट किया गया है, वह पुष्कर सिंह की सिनेमैटोग्राफी का कमाल है। हालांकि, फिल्म के पहले भाग की एडिटिंग थोड़ी और शार्प होती तो बेहतर होता। काजोल की परफॉरमेंस प्रशंसा के योग्य है, और उनकी बेटी खेरिन शर्मा ने भी अच्छा काम किया है।


काजोल की अदाकारी

काजोल की अदाकारी इस फिल्म में सबसे प्रमुख है। उनके एक्सप्रेशन्स और स्क्रीन प्रेजेंस दर्शकों को प्रभावित करते हैं। हालांकि, रोनित रॉय का किरदार अपेक्षाकृत कमजोर लगता है। 'मां' की कहानी दिलचस्प है, लेकिन हॉरर के मामले में यह 'शैतान' के मुकाबले कमजोर साबित होती है।