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चुनावों में मीडिया की भूमिका: एक निष्पक्ष प्रहरी की आवश्यकता

चुनावों के दौरान मीडिया की भूमिका पर चर्चा करते हुए, यह लेख पत्रकारिता की निष्पक्षता और पारदर्शिता की आवश्यकता को उजागर करता है। क्या पत्रकार केवल सूचना देने तक सीमित हैं, या उन्हें एक प्रहरी की भूमिका निभानी चाहिए? इस लेख में यह भी बताया गया है कि कैसे पत्रकारिता और पीआर के बीच का अंतर लोकतंत्र की सुरक्षा में महत्वपूर्ण है। जानें कि पत्रकारों को अपनी जिम्मेदारियों को कैसे निभाना चाहिए और चुनावी प्रक्रिया में जनता की आवाज़ बनना चाहिए।
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चुनावों में मीडिया की भूमिका: एक निष्पक्ष प्रहरी की आवश्यकता

मीडिया की जिम्मेदारी

क्या चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता है? क्या प्रशासन और चुनाव आयोग निष्पक्षता से कार्य कर रहे हैं? क्या मतदाता को स्वतंत्रता से वोट डालने का अवसर मिल रहा है? यदि पत्रकार इन पहलुओं पर ध्यान नहीं देंगे, तो सत्ता और धन का दुरुपयोग जनमत को भटका सकता है। इस निर्णायक समय में मीडिया की भूमिका केवल सूचना प्रदान करने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक प्रहरी, यानी ‘वॉचडॉग’ की तरह कार्य करता है।


भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत उसकी जनता है, और पत्रकारों का कर्तव्य है कि वे इस जनता की आवाज़ बनें। चुनाव वह समय होता है जब यह शक्ति अपने मत से अगले पाँच वर्षों की दिशा निर्धारित करती है। ऐसे समय में मीडिया की भूमिका केवल सूचना देने तक सीमित नहीं रह जाती, बल्कि यह एक प्रहरी की तरह कार्य करती है।


दुर्भाग्यवश, आज कई बार यह प्रहरी सार्वजनिक हित की रक्षा करने के बजाय सत्ता या किसी राजनीतिक दल का प्रचारक बन जाता है। यह विमर्श महत्वपूर्ण है कि पत्रकारों और एंकरों को अपनी मूल भूमिका निभाने की आवश्यकता है, न कि पीआर पेशेवर बन जाने की।


पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य हमेशा सत्य की खोज रहा है। पत्रकार न तो किसी नेता के समर्थक होते हैं और न ही विरोधी, वे केवल जनता के प्रतिनिधि होते हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि प्रेस का कार्य जनता को सरकार की गलतियों से अवगत कराना है, न कि सरकार का मुखपत्र बनना। चुनाव के समय यह भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि जनता को सूचित निर्णय लेने के लिए निष्पक्ष जानकारी की आवश्यकता होती है।


यदि मीडिया इस समय भ्रम फैलाने या किसी पक्ष के प्रचार का माध्यम बनता है, तो यह लोकतंत्र की आत्मा को आघात पहुँचाता है।


पत्रकारिता एक सार्वजनिक सेवा है, जबकि पीआर एक निजी हित का व्यवसाय है। दोनों के स्वरूप में मूलभूत अंतर है। जहाँ पत्रकारिता का उद्देश्य सत्य और पारदर्शिता है, वहीं पीआर का उद्देश्य छवि निर्माण होता है। जब कोई पत्रकार या एंकर अपने मंच का उपयोग किसी नेता की छवि को चमकाने या विरोधी को बदनाम करने के लिए करता है, तो वह पत्रकार नहीं, बल्कि पीआर एजेंट बन जाता है। यह स्थिति न केवल उसकी पेशेवर आचार संहिता का उल्लंघन करती है, बल्कि जनता के साथ विश्वासघात भी है।


चुनाव कवरेज अक्सर टीआरपी की होड़ में सनसनीखेज रूप ले लेता है। लेकिन असली पत्रकारिता की परीक्षा तब होती है जब दबाव होता है, और फिर भी पत्रकार निष्पक्ष रह पाते हैं। पत्रकारों को चाहिए कि वे चुनावी खबरों में तथ्यों की पुष्टि करें, उम्मीदवारों के वादों की जांच करें और जनता से जुड़े मुद्दों को प्राथमिकता दें, न कि केवल रैलियों की भीड़ या विवादों की गहमागहमी को।


एंकरों के लिए भी यह समय आत्म-संयम का होता है। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे मंच पर दोनों पक्षों को समान अवसर दें, तर्क पर तर्क से जवाब लें और चुनावी बहस को ‘शोर’ नहीं बल्कि ‘संवाद’ में बदलें। पत्रकारों और एंकरों का उद्देश्य दर्शकों को किसी दल की मनोवैज्ञानिक दिशा में मोड़ना नहीं, बल्कि उन्हें सोचने के लिए प्रेरित करना होना चाहिए।


लोकतंत्र में पत्रकार सत्ता का संतुलन बनाए रखने वाले चौथे स्तंभ का प्रतिनिधित्व करते हैं। चुनाव के समय जब राजनीतिक दल वादों की बाढ़ लाते हैं, तब मीडिया का दायित्व है कि वह इन वादों की जांच करे। कौन से वादे व्यवहारिक हैं और कौन से केवल भाषणों की सजावट हैं। इसके अलावा, मीडिया को यह भी देखना चाहिए कि क्या चुनावी प्रक्रिया पारदर्शी है? क्या प्रशासन और चुनाव आयोग निष्पक्ष हैं? क्या मतदाता को स्वतंत्र रूप से वोट डालने का अवसर मिल रहा है? यदि पत्रकार यह निगरानी न करें, तो सत्ता और धनबल का उपयोग करके जनमत को गुमराह करने की आशंका बढ़ जाती है।


इस प्रकार, पत्रकार ही वह दीवार हैं जो जनतंत्र को ‘विज्ञापनतंत्र’ बनने से रोक सकते हैं। सच्चा पत्रकार अपनी राय ज़रूर रख सकता है, लेकिन उसे तथ्यों की सत्यता से कभी समझौता नहीं करना चाहिए। उसे चाहिए कि वह हर रिपोर्ट में स्रोत स्पष्ट करे, हर दावा परखे और किसी भी राजनीतिक संदेश को प्रसारित करने से पहले उसकी विश्वसनीयता सुनिश्चित करे। पत्रकारिता में ‘निष्पक्षता’ का अर्थ यह नहीं है कि सबकी बात एक समान मानी जाए, बल्कि यह कि सच्चाई के प्रति वफ़ादारी रखी जाए, चाहे वह सत्ता के खिलाफ़ हो या विपक्ष के।


एंकरों को भी समझना होगा कि उनका मंच और चैनल एक भरोसे का प्रतीक है। यदि वे उसी मंच से किसी विशेष पार्टी के प्रवक्ता बन जाएँ, तो वह भरोसा टूट जाता है। ट्रोल्स के प्रभाव, कॉर्पोरेट दबाव और राजनीतिक समीकरणों के बीच संतुलन बनाए रखना कठिन है, पर यही कठिनाई पत्रकारिता को सम्मान दिलाती है।


आज के युग में सोशल मीडिया ने सूचना का लोकतंत्रीकरण किया है, लेकिन अफवाहों और आधी सच्चाईयों के प्रसार का खतरा भी बढ़ा है। इस वातावरण में टीवी और प्रिंट मीडिया के पत्रकारों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। उन्हें चाहिए कि वे त्वरित सुर्खियों से आगे बढ़कर पड़ताल करें, डेटा और दस्तावेज़ों पर आधारित रिपोर्ट तैयार करें और जनता को यह सिखाएँ कि सच्ची खबर कैसे पहचानी जाए। यदि पत्रकार भी सिर्फ़ ट्रेंड या वायरल वीडियो के पीछे भागने लगे, तो वह समाज को जागरूक नहीं बल्कि भ्रमित करेगा।


आज चुनाव के मौसम में पत्रकारों को आत्ममंथन की ज़रूरत है। क्या वे अपनी रिपोर्टों से जनता को सशक्त बना रहे हैं या किसी राजनीतिक पार्टी या कॉर्पोरेट घराने के एजेंडे को मज़बूत कर रहे हैं? क्या उनके सवाल जनता के प्रश्न हैं या टीआरपी के लिए रचे गए नाटक? लोकतंत्र तभी सुरक्षित रहेगा जब पत्रकार अपने पेशे की आत्मा को जिंदा रखेंगे। जब वे सत्ता से नहीं, बल्कि जनता से डरेंगे। ‘वॉचडॉग’ बनने का अर्थ है सत्ता पर निगाह रखना, अन्याय पर सवाल करना और जनता के अधिकारों की रक्षा करना। चुनाव चाहे लोकसभा का हो या नगरपालिका का, मीडिया का धर्म एक ही है: सच दिखाना, पूरी ईमानदारी से, चाहे किसी को असुविधा ही क्यों न हो।


पत्रकारिता केवल करियर नहीं, बल्कि लोकसेवा का माध्यम है। यदि पत्रकार और एंकर इस आत्मा को पहचान लें और चुनावी मौसम में पीआर के प्रभाव से ऊपर उठकर तटस्थ प्रहरी बनें, तो लोकतंत्र की नींव और अधिक मजबूत होगी। जनमत जागरूक होगा, सत्ता जवाबदेह बनेगी और भारत की लोकतांत्रिक परंपरा सच्चे अर्थों में सशक्त होगी।