Newzfatafatlogo

शिव और पार्वती का विवाह: रामचरितमानस की कथा

रामचरितमानस में शिव और पार्वती के विवाह की कथा का वर्णन किया गया है। इस कथा में रति को वरदान, कृष्ण का अवतार, और देवताओं की प्रार्थना जैसे महत्वपूर्ण प्रसंग शामिल हैं। जानें कैसे शिवजी ने पार्वती को स्वीकार किया और इस दिव्य विवाह का उत्सव कैसे मनाया गया। यह कथा न केवल धार्मिक महत्व रखती है, बल्कि भारतीय संस्कृति की गहराई को भी दर्शाती है।
 | 
शिव और पार्वती का विवाह: रामचरितमानस की कथा

श्री रामचन्द्राय नम:

श्री रामचन्द्राय नम:




पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं


मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।


श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये


ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥




रति को वरदान

दोहा :


अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु।


बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु॥




भावार्थ:-हे रति! अब से तेरे स्वामी का नाम अनंग होगा। वह बिना ही शरीर के सबको व्यापेगा। अब तू अपने पति से मिलने की बात सुन॥


 


कृष्ण का अवतार

चौपाई :


जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥


कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥




भावार्थ:-जब पृथ्वी के बड़े भारी भार को उतारने के लिए यदुवंश में श्री कृष्ण का अवतार होगा, तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) के रूप में उत्पन्न होगा। मेरा यह वचन अन्यथा नहीं होगा॥


शिवजी की कृपा

रति गवनी सुनि संकर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी॥


देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए॥




भावार्थ:-शिवजी के वचन सुनकर रति चली गई। अब दूसरी कथा बखानकर (विस्तार से) कहता हूँ। ब्रह्मादि देवताओं ने ये सब समाचार सुने तो वे वैकुण्ठ को चले॥


 


देवताओं की प्रार्थना

सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥


पृथक-पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥




भावार्थ:-फिर वहाँ से विष्णु और ब्रह्मा सहित सब देवता वहाँ गए, जहाँ कृपा के धाम शिवजी थे। उन सबने शिवजी की अलग-अलग स्तुति की, तब शशिभूषण शिवजी प्रसन्न हो गए॥


 


शिवजी का उत्तर

बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू॥


कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी॥




भावार्थ:-कृपा के समुद्र शिवजी बोले- हे देवताओं! कहिए, आप किसलिए आए हैं? ब्रह्माजी ने कहा- हे प्रभो! आप अन्तर्यामी हैं, तथापि हे स्वामी! भक्तिवश मैं आपसे विनती करता हूँ॥




शिव और पार्वती का विवाह

देवताओं का शिवजी से ब्याह के लिए प्रार्थना करना, सप्तर्षियों का पार्वती के पास जाना


 


दोहा :


सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु।


निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥




भावार्थ:-हे शंकर! सब देवताओं के मन में ऐसा परम उत्साह है कि हे नाथ! वे अपनी आँखों से आपका विवाह देखना चाहते हैं॥


 


उत्सव का दृश्य

चौपाई :


यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन॥


कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिन्धु यह अति भल कीन्हा॥




भावार्थ:-हे कामदेव के मद को चूर करने वाले! आप ऐसा कुछ कीजिए, जिससे सब लोग इस उत्सव को नेत्र भरकर देखें। हे कृपा के सागर! कामदेव को भस्म करके आपने रति को जो वरदान दिया, सो बहुत ही अच्छा किया॥


 


शिवजी की कृपा

सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ॥


पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा॥




भावार्थ:-हे नाथ! श्रेष्ठ स्वामियों का यह सहज स्वभाव ही है कि वे पहले दण्ड देकर फिर कृपा किया करते हैं। पार्वती ने अपार तप किया है, अब उन्हें अंगीकार कीजिए॥


 


शिवजी का प्रसन्न होना

सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी॥


तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साईं॥




भावार्थ:-ब्रह्माजी की प्रार्थना सुनकर और प्रभु श्री रामचन्द्रजी के वचनों को याद करके शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक कहा- 'ऐसा ही हो।' तब देवताओं ने नगाड़े बजाए और फूलों की वर्षा करके 'जय हो! देवताओं के स्वामी जय हो' ऐसा कहने लगे॥


 


सप्तर्षियों का आगमन

अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए॥


प्रथम गए जहँ रहीं भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी॥




भावार्थ:-उचित अवसर जानकर सप्तर्षि आए और ब्रह्माजी ने तुरंत ही उन्हें हिमाचल के घर भेज दिया। वे पहले वहाँ गए जहाँ पार्वतीजी थीं और उनसे छल से भरे मीठे वचन बोले-॥


 


पार्वती का उत्तर

दोहा :


कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस॥


अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस॥




भावार्थ:-नारदजी के उपदेश से तुमने उस समय हमारी बात नहीं सुनी। अब तो तुम्हारा प्रण झूठा हो गया, क्योंकि महादेवजी ने काम को ही भस्म कर डाला॥




पार्वती का मुस्कुराना

चौपाई :


सुनि बोलीं मुसुकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी॥


तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा॥




भावार्थ:-यह सुनकर पार्वतीजी मुस्कुराकर बोलीं- हे विज्ञानी मुनिवरों! आपने उचित ही कहा। आपकी समझ में शिवजी ने कामदेव को अब जलाया है, अब तक तो वे विकारयुक्त ही रहे!॥


 


शिवजी की सच्चाई

हमरें जान सदासिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी॥


जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी॥




भावार्थ:-किन्तु हमारी समझ से तो शिवजी सदा से ही योगी, अजन्मे, अनिन्द्य, कामरहित और भोगहीन हैं और यदि मैंने शिवजी को ऐसा समझकर ही मन, वचन और कर्म से प्रेम सहित उनकी सेवा की है॥


 


मुनियों का विश्वास

तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा॥


तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा। सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा॥




भावार्थ:-तो हे मुनीश्वरो! सुनिए, वे कृपानिधान भगवान मेरी प्रतिज्ञा को सत्य करेंगे। आपने जो यह कहा कि शिवजी ने कामदेव को भस्म कर दिया, यही आपका बड़ा भारी अविवेक है॥


 


अग्नि का स्वभाव

तात अनल कर सहज सुभाऊ। हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ॥


गएँ समीप सो अवसि नसाई। असि मन्मथ महेस की नाई॥




भावार्थ:-हे तात! अग्नि का तो यह सहज स्वभाव ही है कि पाला उसके समीप कभी जा ही नहीं सकता और जाने पर वह अवश्य नष्ट हो जाएगा। महादेवजी और कामदेव के संबंध में भी यही न्याय समझना चाहिए॥




मुनियों का हर्ष

दोहा :


हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास।


चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास॥




भावार्थ:-पार्वती के वचन सुनकर और उनका प्रेम तथा विश्वास देखकर मुनि हृदय में बड़े प्रसन्न हुए। वे भवानी को सिर नवाकर चल दिए और हिमाचल के पास पहुँचे॥


 


हिमाचल को समाचार

चौपाई :


सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा॥


बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना॥




भावार्थ:-उन्होंने पर्वतराज हिमाचल को सब हाल सुनाया। कामदेव का भस्म होना सुनकर हिमाचल बहुत दुःखी हुए। फिर मुनियों ने रति के वरदान की बात कही, उसे सुनकर हिमवान्‌ ने बहुत सुख माना॥1॥


 


शुभ दिन की खोज

हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई।


सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई॥




भावार्थ:-शिवजी के प्रभाव को मन में विचार कर हिमाचल ने श्रेष्ठ मुनियों को आदरपूर्वक बुला लिया और उनसे शुभ दिन, शुभ नक्षत्र और शुभ घड़ी शोधवाकर वेद की विधि के अनुसार शीघ्र ही लग्न निश्चय कराकर लिखवा लिया॥


 


लग्न पत्रिका

पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही॥


जाइ बिधिहि तिन्ह दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती॥




भावार्थ:-फिर हिमाचल ने वह लग्नपत्रिका सप्तर्षियों को दे दी और चरण पकड़कर उनकी विनती की। उन्होंने जाकर वह लग्न पत्रिका ब्रह्माजी को दी। उसको पढ़ते समय उनके हृदय में प्रेम समाता न था॥


 


लग्न का उद्घोष

लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई॥


सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे॥




भावार्थ:-ब्रह्माजी ने लग्न पढ़कर सबको सुनाया, उसे सुनकर सब मुनि और देवताओं का सारा समाज हर्षित हो गया। आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी, बाजे बजने लगे और दसों दिशाओं में मंगल कलश सजा दिए गए॥


 


अगले प्रसंग की प्रतीक्षा

शेष अगले प्रसंग में -------------




राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे ।


सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥




- आरएन तिवारी