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सोशल मीडिया का दुष्प्रयोग और सांस्कृतिक संकट

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सोशल मीडिया का दुष्प्रयोग और सांस्कृतिक संकट


सोशल मीडिया का दुष्प्रयोग और सांस्कृतिक संकट


गिरीश्वर मिश्र

सोशल मीडिया आज संचार की दुनिया में एक बड़ी ताक़त के रूप में उभर रहा है। उसकी साक्रिय उपस्थिति से आबालबृद्ध सभी प्रभावित हो रहे हैं। उसकी अपरिहार्य, तीव्र और लुभावनी और सुगम उपस्थिति आज समाज में सबको अपने आगोश में लेती जा रही है। सूचना की दुनिया से आगे बढ़ कर सोशल मीडिया हमारी निजी उपस्थिति और उसकी सार्थकता के आशय और जीवन के सरोकार सबको प्रभावित कर रहा है। हमारी अस्मिता को रचता हुआ वह किसी दुनिया या सत्य का प्रतिनिधित्व या प्रस्तुति से आगे बढ़ कर अपनी एक स्वायत्त दुनिया बना चुका है। उसका अपना वजूद वास्तविक दुनिया को भी गढ़ रहा है। ख़ास तौर पर संचार प्रौद्योगिकी की दुनिया में ‘मोबाइल’ के ज़रिए सोशल मीडिया ने आम आदमी की ज़िंदगी में जिस तरह की ज़बरदस्त सेंधमारी की है उसका निकट इतिहास में कोई जोड़ नहीं दिखता।

इसकी लोकप्रियता कितनी है इसका अंदाज़ा लगाना बेहद मुश्किल है। लोग जीवन में बिताए जाने वाले समय में घंटों इससे चिपके रहते हैं। सोते समय स्वोपन के मिथ्या जगत में तो हम रहते हैं परंतु आज की सच्चाई यह है कि जाग्रत अवस्था में वर्चुअल या आभासी दुनिया में हमारी आवाजाही वास्तविक दुनिया में जीने की तुलना में बढती जा रही है। आज सबके मन में अपने को रचने, प्रस्तुत करने और एक बड़े विस्तृत फलक पर उपस्थित करने की प्रबल इच्छा जाग रही है। दर्शक को प्रतिभागिता का अवसर देने वाली अंत:क्रियात्मक सोशल मीडिया दर्शक या पाठक को बेहिसाब शक्ति का अहसास कराती है। इसकी लोकप्रियता का गणित ऐसा है कि 'इंफलुएंसर ' (यू ट्यूबर!) गण देश के सामाजिक-सांस्कृतिक नेता की तरह अभिनंदित होते हैं और अच्छी ख़ासी आर्थिक कमाई भी करते हैं। यानी वर्चुअल दुनिया मुख्य होती जा रही है और वास्तविक दुनिया के दिलो-दिमाग को संचालित कर रही है। वह रंगीन, गतिशील और अत्यंत व्यापक है और इसलिए उसके स्पर्श में आकर आदमी आसानी से बदल जाता है। अब दैनिक जीवन के जीने के सामान्य अभ्यास में ‘स्क्रीन टाइम’ (संचार और संवाद के गैजेट से जुड़ा रहने में बिताने वाला समय) एक ख़ास मद हो गया है।

यह आभासी दुनिया लोगों को अपने अनुभव-संसार को गढ़ने के लिए कई विकल्पों के साथ असीमित लगने वाली छूट दे रही है और वास्तविक दुनिया में होने वाली गतिविधियों को निर्धारित कर रही है। दर्शक को अपनी निजी स्वतंत्रता के विस्तार का अहसास होता है। इस तरह का यह आभासी दायरा अब इंटरनेट के सहयोग से अपरिमित-सा होता जा रहा है। यह अब मन मस्तिष्क पर छाता हुआ यह आभासी हस्तक्षेप हमारे भाव-जगत को आकार देने लगा है। इस तरह वह जाने अनजाने हमारे स्वभाव को भी बनाते-बिगाड़ते हुए प्रभावित कर रहा है। हमारा स्वाद बदल रहा है। हम क्या हैं और क्या होना चाहते हैं यह सबकुछ मीडिया पर टिकने लगा है। ठीक से कहें तो यह सबको अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है। आदमी के मनो-जगत में प्रवेश कर यह चुपके-चुपके हमारी आकांक्षा, अभिरुचि, गतिविधि और व्यक्तित्व सबको गढ़ने वाला एक अचूक औंजार साबित हो रहा है।

ताजा घटनाक्रम में एक महानगर की प्रतिष्ठित पृष्ठभूमि से आने वाले सुपठित युवा द्वारा की गई अश्लील प्रस्तुति चर्चा का विषय बनी है। वर्चुअल प्लेटफार्म पर अभद्रता की हदें पार करने की इस शिकायत पर सबकी नज़रें गई हैं। यह सब है तो पुराना धंधा परंतु इस बार बात सुप्रीम कोर्ट तक औपचारिक रूप से पहुंच गई। पहुँची ही नहीं बल्कि सर्वोच्च अदालत ने उसका तत्काल संज्ञान भी लिया और पेशी पर आरोपी को अच्छी तरह डांट भी लगाई। पर गौरतलब है कि इसके पहले भी उच्छृंखल रूप से सोशल मीडिया का दुरुपयोग जोर पकड़े हुए था और इसके बाद अभी भी चालू है। सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर के रूप में ऐसे महानुभावों को आदर और धन संपदा भी मिलती है। वे रसूखदार लोगों में शुमार होते हैं। इस तरह सोशल मीडिया मनोरंजन, व्यापार, शिक्षा और संस्कार सबको प्रभावित कर रहा है।

सोशल मीडिया में विशेष चिंता वाली उपस्थिति आज सेक्स और हिंसा की व्यापक उपस्थिति है। इसका एक से एक विद्रूप रूप मोबाइल में हर दिन हर घड़ी परोसा जा रहा है । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र में मूल अधिकार है। परंतु इसके तहत कुछ भी करने की छूट लेने की आज़ादी अधिकार में नहीं है। इस समय सोशल मीडिया और ख़ासतौर पर ‘वेब सिरीज़’, ‘फ़ेसबुक पोस्ट’ और ‘रील’ आदि में आ रही बहुसंख्यक प्रस्तुतियों में भोंडे सेक्स के निर्लज्ज प्रचार का ही बाहुल्य है। इन तक पहुँच पर कोई रोक-छेंक न होने से जवान, बच्चे और बूढ़े सभी इसकी तरफ़ अपनी सुविधानुसार मुखातिब होते हैं। विविध प्रकार की पोर्नोग्राफ़ी का यह दुरन्त विस्तार हर आयु वर्ग, हर धर्म और जाति तथा प्रत्येक आय वर्ग के लोगों को लुभा रहा है। अब यह निजी और गोपनीय नहीं रहा। इसका नशा हर वर्ग में बढ़ रहा है।

स्वतंत्रता की इस मुहिम में नग्न और अर्धनग्न, मांसल स्त्री (और पुरुष) शरीर को, छिपाने-दिखाने की सुनियोजित योजना के साथ, विज्ञापित और प्रदर्शित किया जा रहा है। यह अलग बात है कि इनमें कितने पात्र असली हैं और कितने डीपफ़ेक जैसी तकनीक के सौजन्य से बने हुए हैं। इनमें अवैध और अनैतिक देह-संबंध को खोजते-उघाड़ते और साझा करने की यात्रा शुरू हो गई है। पहले जिसे वेश्यावृत्ति कहते थे उसके नाना रूप उत्तेजक कहानियों और घटनाओं में पिरो कर प्रस्तुत करती प्रचुर सामग्री धड़ल्ले से फैलाए जा रहे हैं। पब्लिक डोमेन में डंप की जा रही इन सामग्रियों में रुपया-पैसा, वासना, सेक्स कारोबार और व्यापार आदि मसलों को जोड़-जाड़ कर एक आकर्षक और कामोत्तेजक दुनिया रच कर दिखाई जाती है। इनमें बहुत-सा बाहर के देशों से उठाई सामग्री भी होती है।

वैध और नाजायज संबंधों की सारी हदों को पार करती इस कल्पित वर्चुअल दुनिया में कुछ भी संभव होता है। इनमें दर्शकों को लुभाने और उनको आकर्षित करने के हर नुस्खे आजमाये जाते हैं। यह क्षणिक सुख का आभास या अहसास करा देती है। इसके चलते लोग इसमें फँस जाते हैं। शब्द, भाषा और चित्रों के माध्यम से अश्लीलता का वीभत्स रूप बेरोक-टोक निर्द्वंद भाव से सब लोगों को मुहैया कराया जा रहा है। इन सबके सम्मिलित प्रभाव कार्य के प्रति अन्यमनस्कता, अव्यवस्थित काल-बोध और अमर्यादित सामाजिक आचरण में प्रतिफलित होता है। एक भयावह बीमारी की तरह इसकी लत लगने पर इसका परिणाम दुर्व्यसन (एडिक्शन) के मर्ज़ में भी तब्दील हो जाता है।

सांस्कृतिक मर्यादाओं की सभी हदों को पार करते हुए विभिन्न प्रकार की प्रकट, सांकेतिक और अप्रत्यक्ष अश्लीलताओं को लगातार परोसते दृश्यों में बाँध कर हर किसी की उत्सुकता को जगाने के लिए प्रत्यक्ष और छद्म तरीकों से भरपूर सामग्री अनियंत्रित रूप से प्रस्तुत की जा रही है। उदारता का युग बाजार में आया, राजनीति में आया और अब घर की चारदीवारी में पहुँच कर लोगों के दिलो-दिमाग़ में खलबली मचा रहा है। इसने समाज की सोच या वैचारिकी में अनियंत्रित खुलेपन का न्योता दिया। इस तरह के बदलाव के पीछे नगरीकरण, सामाजिक गतिशीलता, नौकरी पेशे के जीवन की दुश्वारियाँ मुख्य रही हैं। इस परिवर्तन के केंद्र में भोग और राग की अतुलित बलवती इच्छा वेगवान होती गई। चरित्र, आचार-विचार , शील और सदाचार और इंद्रियों का निग्रह जैसे विचार दकियानूसी और प्रगति के मार्ग में रोड़े की तरह जाने समझे जाने लगे। इस रोग की लपेट में किशोर, युवा और प्रौढ़ सभी आ रहे हैं। “गर्लफ्रैंड “और “ब्वॉय फ्रैंड “अब एक स्वीकृत और प्रचलित प्रत्यय और सामाजिक अभ्यास हो चला है। इस तरह की मित्रता की सीमा और परिधि किस तरह चलेगी यह इसमें शामिल किरदारों की भलमनसाहत पर निर्भर करता है। इसमें क्या वर्जित और क्या विहित है, यह मित्रों की अपनी मर्जी पर निर्भर करता है। सेक्स जीवन में नवाचार अब सामाजिक जीवन का हिस्सा हो रहा है। लिव इन रिलेशनशिप और आपसी रजामंदी से प्रौढ़ जनों को सेक्स की वैधानिक स्वीकृति सामाजिक आचरण के नये मानदंड स्थापित कर रही है। सामाजिक जीवन की नई पैमाइश में व्यक्ति ही प्रथम और अंतिम निर्णायक होता जा रहा है।

व्यक्ति की चेतना का उत्कर्ष सदा से वांछित रहा है। काम की गणना पुरुषार्थ में की गई है। श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं ‘मैं धर्म के अविरुद्ध काम हूँ।’ आज भी प्रश्न यही है कि जीवन में मर्यादा कैसे लाई जाए ? धर्म अर्थात् विवेकसम्मत और संतुलित आचरण का मार्ग कैसे प्रशस्त हो? इस दृष्टि से घर, स्कूल, मीडिया सभी को अपनी ज़िम्मेदारी पहचाननी और निभानी होगी। क़ानून दांव-पेंच का मामला है और वह अपना काम करेगा पर उसका परिणाम भी तभी मिलेगा जब हम मर्यादा में विश्वास करें, वह मर्यादा जो अपने और सबके हित को ध्यान में रख कर स्वीकार की जाती है। सोशल मीडिया को नियमित करने और अमर्यादित उपयोग को रोकना सरकार की वरीयताओं में आना चाहिए। इस तरह के अनर्गल संचार के नकारात्मक प्रभावों से समाज को बचाना आवश्यक है।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश