कार्तिक पूर्णिमा: देव दीपावली का महत्व और मान्यता
देव दीपावली का उत्सव
कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को देव दीपावली का पर्व मनाया जाता है। इस दिन मान्यता है कि देवता स्वयं धरती पर आकर गंगा स्नान करते हैं और दीप जलाकर इस पर्व को मनाते हैं।
एक प्राचीन कथा के अनुसार, कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध किया था। इस घटना के बाद देवताओं ने खुशी मनाते हुए दीपावली का उत्सव मनाया। तभी से इस दिन को 'देव दीपावली' कहा जाने लगा, क्योंकि सभी देवता इस अवसर पर पृथ्वी पर आए थे।
देव दीपावली के पीछे एक और कहानी है, जो महाभारत के कर्णपर्व से जुड़ी हुई है। इस कथा में त्रिपुरासुर दैत्यराज तारकासुर के तीन पुत्र थे, जिन्होंने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए कठोर तप किया और ब्रह्माजी से अमरता का वरदान मांगा। उन्होंने यह वरदान लिया कि उनकी मृत्यु तभी होगी जब तीनों पुरियां एक सीध में आएं और उन्हें एक ही बाण से मारा जाए।
इन दैत्यों के आतंक से परेशान होकर ऋषि-मुनियों और देवताओं ने भगवान शिव से सहायता मांगी। भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध करने का निर्णय लिया और एक दिव्य रथ तैयार किया, जिसमें पृथ्वी को आधार, सूर्य और चंद्रमा को पहिए, मेरु पर्वत को धनुष और वासुकी नाग को धनुष की डोर बनाया गया। भगवान विष्णु स्वयं बाण बने।
कार्तिक पूर्णिमा के दिन अभिजित नक्षत्र में तीनों पुरियां एक पंक्ति में आईं। शिव ने एक ही बाण से त्रिपुरासुर को भस्म कर दिया। इस विजय के बाद शिव को 'त्रिपुरारी' कहा जाने लगा। देवताओं ने इस जीत के उपलक्ष्य में काशी में दीप दान कर उत्सव मनाया।
इस प्रकार, कार्तिक पूर्णिमा को 'देव दीपावली' के रूप में मनाने की परंपरा शुरू हुई। वाराणसी में इस दिन देव दीपावली का उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।
