जन्माष्टमी पर खीरा काटने की परंपरा का महत्व

खीरे का गर्भ के प्रतीक के रूप में महत्व
जन्माष्टमी के अवसर पर खीरे की विशेष परंपरा का पालन किया जाता है। रात के समय भगवान श्री कृष्ण के जन्म के उपलक्ष्य में खीरा काटा जाता है, जिसका गहरा धार्मिक महत्व है। यह परंपरा केवल एक धार्मिक क्रिया नहीं है, बल्कि यह हमें जीवन में पवित्रता, त्याग और भक्ति की प्रेरणा देती है। इस लेख में हम खीरे से जुड़ी इस परंपरा के बारे में विस्तार से जानेंगे।
लड्डू गोपाल की मूर्ति खीरे के बीच में

जन्माष्टमी के दिन भगवान श्री कृष्ण के बाल रूप की पूजा की जाती है। लड्डू गोपाल की छोटी मूर्ति को इस तरह रखा जाता है जैसे वह माता के गर्भ में हों। शास्त्रों के अनुसार, खीरे को गर्भ का प्रतीक माना गया है, और इसमें भगवान को स्थापित करना उनके अवतार की याद दिलाता है। यह परंपरा भक्ति की भावना को जीवंत करती है और भक्त और भगवान के बीच एक गहरा आध्यात्मिक संबंध स्थापित करती है।
भगवान श्री कृष्ण का जन्म और खीरे की काटने की समय
भगवान श्री कृष्ण का जन्म मध्य रात्रि में हुआ था, इसलिए खीरे को ठीक 12 बजे काटा जाता है। इसे उनके जन्म का प्रतीक माना जाता है। जैसे माता देवकी के गर्भ से श्री कृष्ण का जन्म हुआ, उसी प्रकार खीरे को काटकर उसके बीज अलग किए जाते हैं। खीरे को काटना बंधन से मुक्ति, अंधकार से प्रकाश और अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है।
खीरे की शीतलता और संतान सुख
शास्त्रों के अनुसार, भगवान श्री कृष्ण को शीतलता प्रिय थी। खीरा एक शीतल फल है। मान्यता है कि खीरे का प्रसाद ग्रहण करने से संतान सुख की प्राप्ति होती है। खीरे का सेवन आधी रात के बाद ही प्रसाद के रूप में किया जाता है।
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