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ज्येष्ठ पूर्णिमा: सावित्री-सत्यवान की अमर प्रेम कथा

ज्येष्ठ पूर्णिमा, जिसे वट पूर्णिमा भी कहा जाता है, हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण पर्व है। इस दिन सुहागिन महिलाएं अपने पतियों की लंबी उम्र के लिए व्रत करती हैं। सावित्री-सत्यवान की प्रेरणादायक कथा इस पर्व का मुख्य आकर्षण है, जो प्रेम और समर्पण का प्रतीक है। जानें इस कथा के माध्यम से कैसे सावित्री ने अपने पति की रक्षा की और इस दिन की पूजा का महत्व क्या है।
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ज्येष्ठ पूर्णिमा: सावित्री-सत्यवान की अमर प्रेम कथा

ज्येष्ठ पूर्णिमा का महत्व

ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा, जिसे वट पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है, हिंदू धर्म में एक विशेष पर्व है। इस वर्ष यह पर्व 10 जून 2025 को मनाया जाएगा। यह दिन सुहागिन महिलाओं के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो अपने पतियों की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि के लिए व्रत और पूजा करती हैं।


सावित्री-सत्यवान की प्रेरणादायक कथा

इस दिन बरगद के पेड़ की पूजा का विशेष महत्व है, और सावित्री-सत्यवान की प्रेरणादायक कथा सुनाई जाती है, जो पतिव्रता धर्म और अटूट प्रेम का प्रतीक है। आइए, इस कथा को समझते हैं और जानते हैं कि यह पर्व क्यों खास है।


प्राचीन काल में राजा अश्वपति की पुत्री सावित्री का जन्म हुआ, जो अपनी सुंदरता, बुद्धिमत्ता और दृढ़ संकल्प के लिए जानी जाती थीं। जब सावित्री विवाह योग्य हुईं, तो राजा ने उनके लिए उपयुक्त वर की खोज शुरू की। लेकिन सावित्री ने स्वयं यह जिम्मेदारी ली और एक दिन उनकी मुलाकात सत्यवान से हुई।


सत्यवान के सौम्य स्वभाव और सात्विक गुणों ने सावित्री का दिल जीत लिया, और उन्होंने मन ही मन सत्यवान को अपने जीवनसाथी के रूप में चुन लिया।


हालांकि, जब ऋषि नारद को इस निर्णय की जानकारी मिली, तो उन्होंने सावित्री को सत्यवान की अल्पायु के बारे में चेतावनी दी। नारद जी ने सुझाव दिया कि सावित्री किसी अन्य वर का चयन करें, लेकिन सावित्री का प्रेम और निश्चय अटल था।


उन्होंने सत्यवान से विवाह कर लिया और दोनों सुखी वैवाहिक जीवन जीने लगे। जैसे-जैसे सत्यवान की मृत्यु का समय नजदीक आया, सावित्री ने अपने पति की रक्षा के लिए उपवास और प्रार्थना शुरू कर दी। एक दिन, जब सत्यवान को असहनीय सिरदर्द हुआ, सावित्री ने उन्हें अपनी गोद में लिटाकर सांत्वना दी।


तभी यमराज सत्यवान की आत्मा को लेने आए। सावित्री, अपने पति के प्रति अटूट प्रेम और समर्पण के साथ, यमराज के पीछे चल पड़ीं। यमराज ने उन्हें लौट जाने को कहा, लेकिन सावित्री ने दृढ़ता से कहा, 'मेरे पति जहां जाएंगे, मैं भी उनके साथ जाऊंगी।'


सावित्री के इस पतिव्रता धर्म और प्रेम से प्रभावित होकर यमराज ने उन्हें तीन वरदान मांगने का अवसर दिया। सावित्री ने पहले वरदान में अपने सास-ससुर की खोई हुई दृष्टि लौटाने की प्रार्थना की। दूसरा वरदान उनके ससुर का खोया हुआ राज्य था, और तीसरे वरदान में उन्होंने सत्यवान के साथ संतान सुख की कामना की।


यमराज ने तीनों वरदान स्वीकार किए, लेकिन सावित्री की तीसरी इच्छा ने उन्हें सोच में डाल दिया, क्योंकि संतान सुख के लिए सत्यवान का जीवित रहना आवश्यक था। अंततः, यमराज को सत्यवान की आत्मा लौटानी पड़ी। जब सावित्री बरगद के पेड़ के पास लौटीं, जहां सत्यवान का शरीर रखा था, तब वह चमत्कारिक रूप से जीवित हो उठे। सास-ससुर की आंखों की रोशनी लौट आई, और उनके ससुर को उनका राज्य भी वापस मिल गया। तभी से ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन वट वृक्ष की पूजा और सावित्री-सत्यवान की कथा सुनने की परंपरा शुरू हुई।


यह कथा हमें सिखाती है कि सच्चा प्रेम और विश्वास किसी भी बाधा को पार कर सकता है। ज्येष्ठ पूर्णिमा का यह पर्व न केवल पति-पत्नी के अटूट बंधन का प्रतीक है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि दृढ़ संकल्प और भक्ति से असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है। इस दिन सुहागिन महिलाएं बरगद के पेड़ की पूजा करती हैं, व्रत रखती हैं और अपने परिवार की सुख-शांति के लिए प्रार्थना करती हैं।