बूढ़ी दिवाली: हिमालयी क्षेत्रों में एक अनोखी परंपरा

बूढ़ी दिवाली का जश्न
देहरादून/शिमला: देशभर में दिवाली का पर्व (20-21 अक्टूबर) धूमधाम से मनाया गया, लेकिन भारत के कुछ हिस्सों में असली उत्सव की तैयारी अब शुरू हो रही है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में दीपावली एक महीने बाद मनाई जाती है, जिसे स्थानीय लोग 'बूढ़ी दिवाली' के नाम से जानते हैं।
इस विशेष अवसर पर मनाने के तरीके भी अनोखे हैं, जिसमें पटाखों के बजाय मशाल जुलूस, रस्साकशी और पारंपरिक नृत्य शामिल होते हैं।
बूढ़ी दिवाली का नाम इस तथ्य से जुड़ा है कि यह पारंपरिक दिवाली के लगभग एक महीने बाद आती है। इसे रामायण काल से जोड़ा जाता है, जब भगवान राम की रावण पर विजय और अयोध्या लौटने की खबर हिमालयी क्षेत्रों में एक महीने बाद पहुंची। जब स्थानीय लोगों को यह शुभ समाचार मिला, तो उन्होंने खुशी मनाने के लिए यह पर्व मनाया, जो आज भी जारी है।
उत्तराखंड के जौनसार बावर और हिमाचल के कुल्लू जैसे क्षेत्रों में यह दिवाली नवंबर के दूसरे या तीसरे सप्ताह में मनाई जाती है। जौनसार बावर एक कृषि प्रधान क्षेत्र है, इसलिए इस परंपरा को फसल कटाई से भी जोड़ा जाता है। किसान अपनी फसल कटाई के बाद इस त्योहार को मनाते हैं।
बूढ़ी दिवाली की सबसे खास बात यह है कि यह पूरी तरह से पर्यावरण के अनुकूल होती है। इस दौरान पटाखे नहीं जलाए जाते, बल्कि लोग 'भीमल' की लकड़ी से बनी मशालें जलाते हैं और मशाल जुलूस निकालते हैं।
उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में इसे 'बग्वाल' भी कहा जाता है। इस दौरान ग्रामीण अपनी पारंपरिक वेशभूषा में गांव के पंचायती आंगन या खलिहान में इकट्ठा होते हैं। वहां ढोल-दमाऊ की थाप पर रासो, तांदी, झैंता और हारुल जैसे पारंपरिक लोक नृत्यों पर झूमते-गाते हैं और इस अनोखे पर्व का जश्न मनाते हैं।