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महात्मा गांधी का स्वतंत्रता दिवस पर अनोखा दृष्टिकोण

1947 में भारत की स्वतंत्रता के दिन महात्मा गांधी की अनुपस्थिति ने सभी को चौंका दिया। उस दिन जब पूरा देश जश्न मना रहा था, गांधीजी कोलकाता में दंगों को समाप्त करने के लिए अनशन पर थे। उनका यह कदम न केवल उनकी सामाजिक और राजनीतिक समझ को दर्शाता है, बल्कि यह भी बताता है कि उनके लिए स्वतंत्रता का जश्न मनाना तब तक संभव नहीं था जब तक देश में शांति और एकता नहीं थी। जानें गांधीजी के इस दृष्टिकोण के पीछे की गहराई।
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गांधीजी की अनुपस्थिति और स्वतंत्रता का जश्न

1947 में भारत की स्वतंत्रता के दिन महात्मा गांधी की अनुपस्थिति ने कई लोगों को चौंका दिया। उस दिन देशभर में आज़ादी का जश्न मनाया जा रहा था, जबकि गांधीजी कोलकाता में हिंदू-मुस्लिम दंगों को समाप्त करने के लिए अनशन पर थे। उनका यह कदम उस समय की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति की गहरी समझ को दर्शाता है।


गांधीजी के लिए 15 अगस्त का दिन केवल उत्सव नहीं था, बल्कि चिंतन का अवसर था। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल द्वारा भेजे गए पत्र का उत्तर देते हुए कहा कि जब तक देश में एक-दूसरे के खून से सने लोग हैं, वे कैसे जश्न मना सकते हैं। उनके अनुसार, शांति और अहिंसा के बिना स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है।


कोलकाता के बेड़ियाघाटा में गांधीजी ने ‘हैदरी मंज़िल’ नामक एक मुस्लिम परिवार के घर को अपना ठिकाना बनाया। यह क्षेत्र उस समय हिंसा और पिछड़ेपन का शिकार था। यहां रहकर उन्होंने सभी समुदायों के साथ एकता का संदेश दिया और साम्प्रदायिकता के खिलाफ अपनी आवाज उठाई।


गांधीजी की प्राथमिकताएं स्पष्ट थीं: अहिंसा और एकता। स्वतंत्रता के जश्न से अलग हटकर, उन्होंने यह दिखाया कि उनके लिए सत्ता और आज़ादी से ज्यादा महत्वपूर्ण सामाजिक एकता और शांति थी। वे जानते थे कि नफरत और सांप्रदायिक द्वेष को समाप्त किए बिना स्थायी स्वतंत्रता संभव नहीं है। इसलिए उन्होंने हिंसा को रोकने की अपनी प्रतिबद्धता को बनाए रखा।