महालया अमावस्या: पितृ पक्ष का समापन और दुर्गा पूजा की शुरुआत
महालया अमावस्या, जो पितृ पक्ष के समापन और दुर्गा पूजा की शुरुआत का प्रतीक है, इस वर्ष 21 सितंबर 2025 को मनाई जाएगी। इस दिन पितरों को श्रद्धांजलि अर्पित करने के साथ-साथ मां दुर्गा के धरती पर आगमन का महत्व भी है। जानें इस दिन के मुहूर्त, उपाय और पौराणिक कथा के बारे में, जो इस विशेष अवसर को और भी महत्वपूर्ण बनाती है।
Sep 21, 2025, 10:50 IST
| 
महालया अमावस्या का महत्व
महालया अमावस्या पितृ पक्ष के समापन और नवरात्रि, अर्थात दुर्गा पूजा की शुरुआत का प्रतीक है। इस वर्ष, यह विशेष दिन 21 सितंबर 2025 को मनाया जाएगा। यह तिथि पितरों को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती है। सनातन धर्म के अनुसार, इस दिन मां दुर्गा कैलाश पर्वत से धरती पर आने के लिए विदाई लेती हैं। आइए, जानते हैं महालया अमावस्या का मुहूर्त, उपाय, कथा और मां दुर्गा के आगमन का महत्व...
तिथि और मुहूर्त
हिंदू पंचांग के अनुसार, महालया अमावस्या की तिथि 21 सितंबर 2025 को सुबह 12:16 बजे से शुरू होगी और 22 सितंबर 2025 को दोपहर 01:23 बजे समाप्त होगी।
कुतुप मुहूर्त - सुबह 11:50 से दोपहर 12:38 तक
रौहिण मुहूर्त - दोपहर 12:38 से 01:27 तक
अपराह्न काल - दोपहर 01:27 से 03:53 तक
उपाय करने की आवश्यकता
इस दिन पितरों की पूजा करना आवश्यक है और जरूरतमंदों को भोजन कराना चाहिए। रात में दीपदान करने से पितरों को अपने लोक में लौटने में सहायता मिलती है। धार्मिक मान्यता है कि इस उपाय से पूर्वज प्रसन्न होते हैं और उनका आशीर्वाद सदैव बना रहता है।
मां दुर्गा का आगमन
धार्मिक मान्यता के अनुसार, मां दुर्गा अपने परिवार के साथ कैलाश पर्वत से धरती पर आती हैं। इस आगमन को महालया कहा जाता है। यह वह दिन है, जब पितरों का तर्पण किया जाता है। इसके अगले दिन शारदीय नवरात्रि की तैयारी शुरू होती है, जिसमें मां दुर्गा की मूर्तियों को अंतिम रूप दिया जाता है और उनकी आंखों में रंग भरा जाता है।
पौराणिक कथा
महालया अमावस्या की कथा महाभारत से जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि जब वीर योद्धा कर्ण स्वर्ग पहुंचे, तो उन्हें वहां सोने और रत्नों का भोजन मिला। जब उन्होंने इसका कारण पूछा, तो उन्हें पता चला कि उन्होंने अपने जीवन में कई पुण्य कार्य किए, लेकिन अपने पूर्वजों को कभी भोजन और जल नहीं अर्पित किया।
यह जानने के बाद, कर्ण ने यमराज से प्रार्थना की कि उन्हें कुछ समय के लिए पृथ्वी पर लौटने की अनुमति दी जाए, ताकि वह अपने पितरों का तर्पण और श्राद्ध कर सकें। यमराज ने उनकी निष्ठा से प्रसन्न होकर उन्हें 15 दिन का समय दिया, जिसमें वह अपने पितरों का तर्पण कर सकें। यह 15 दिन आगे चलकर पितृपक्ष कहलाए। इसलिए इस अवधि में पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए तर्पण और श्राद्ध किया जाता है।