श्री कृष्ण जन्माष्टमी: एक महानायक की जीवन यात्रा

श्री कृष्ण जन्माष्टमी विशेष
श्री कृष्ण जन्माष्टमी विशेष: माता के गर्भ में आते ही माता-पिता को कारावास में डाल दिया गया। भादो की काली आधीरात में कारागार में जन्म हुआ। पिता ने शिशु की सुरक्षा के लिए कठिनाई से बरसते मेघों और उफनाई यमुना को पार कर दूसरे के घर तक पहुँचाया। माता-पिता जेल में थे, और शिशु का पालन दूसरे घर में हुआ। उस घर के संस्कारों के अनुसार पालन-पोषण किया गया। 12 वर्षों तक कोई शिक्षा नहीं मिली, केवल गाय चराने और गोसेवकों के साथ समय बिताया। इसी दौरान उन्होंने ग्रामीण जीवन में कई क्रांतिकारी कार्य किए। गोवर्धन की महत्ता को स्थापित किया।
कई महत्वपूर्ण घटनाएँ घटीं, जैसे नल कूवर और पूतना की मुक्ति। मथुरा की जेल से नंदगांव, वृंदावन और 12 वर्ष बाद सांदीपनि के आश्रम में प्रवेश किया। इन 12 वर्षों के बाद मथुरा या नंदगांव की यात्रा संभव नहीं हो सकी। हस्तिनापुर, खांडवप्रस्थ, कुरुक्षेत्र और अंत में द्वारका की संघर्षगाथा ही जीवन का हिस्सा बन गई। केवल संघर्ष में विकसित होती जीवन संस्कृति का संविधान कुरुक्षेत्र की रणभूमि में प्रस्तुत किया गया। महाक्रांति के लिए सेनाएँ शंखनाद कर चुकी थीं, और इसी समय में उन्होंने जीवन संविधान का प्रतिपादन किया, जिसे श्रीमद्भागवत गीता के रूप में जाना जाता है।
महाभारत में महर्षि वेदव्यास जी ने हर जगह श्रीकृष्ण उवाच लिखा है, लेकिन गीता के खंड में भगवानुवाच लिखा है। इसका अर्थ है कि वेदव्यास ने श्रीकृष्ण को महामानव से ऊपर भगवान के रूप में देखा। यही कारण है कि श्रीकृष्ण के जीवन को और गहराई से समझने की आवश्यकता है। वह अपने समय की विसंगतियों से लड़ते रहे, लेकिन किसी को आभास नहीं होने दिया। उनके जीवन में संघर्ष की कोई सीमा नहीं थी।
श्रीकृष्ण की राजनीतिक दृष्टि को समझना आवश्यक है। वह अपने युग की शक्तिशाली राजनीतिक व्यवस्था को बदलने के लिए तत्पर थे। हस्तिनापुर की सत्ता उन्हें बार-बार उद्वेलित करती थी। उन्होंने दुर्योधन के साथ कूटनीति से निपटने का प्रयास किया। एक उदाहरण में, जब दुर्योधन ने पांडवों को अज्ञातवास के बाद भी उनका हिस्सा नहीं देने का ऐलान किया, श्रीकृष्ण ने स्वयं को पांडवों का दूत घोषित किया।
श्रीकृष्ण ने अपने समय की सभ्यता और राजनीति को गहराई से समझा। उन्होंने देखा कि दुर्योधन की सत्ता से प्रजा संतुष्ट है, लेकिन सभ्यता में मनुष्य, मनुष्य से दूर हो चुका है। जब द्रौपदी की लाज बचाने का समय आया, तो उन्होंने उस व्यवस्था के स्थाई समाधान की योजना बनाई।
श्रीकृष्ण के लिए उनका समय किसी संत्रास जैसा था। सभ्यता की असंगति और संस्कृति का क्षरण उनकी सबसे बड़ी चिंता थी। उन्होंने समय, संबंध और संवेदना को संस्कृति के पूर्ण स्वरूप के साथ स्थापित करने के लिए कार्य करने का महत्व समझा।