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एक दीवाने की दीवानियत: प्यार या नियंत्रण की कहानी?

‘एक दीवाने की दीवानियत’ एक नई रोमांटिक ड्रामा है जो प्यार और नियंत्रण की संस्कृति पर सवाल उठाती है। क्या यह फिल्म प्यार की ताकत को दर्शाती है या टॉक्सिक रोमांस को बढ़ावा देती है? विक्रम का किरदार अपने प्रेम को इतनी तीव्रता से जीता है कि वह दूसरे की स्वतंत्रता का अतिक्रमण कर देता है। इस फिल्म की समीक्षा में हम इसके संदेश, तकनीकी पहलू और समाज पर प्रभाव का विश्लेषण करेंगे। क्या यह फिल्म दर्शकों को प्रभावित कर पाएगी? जानने के लिए पढ़ें पूरी समीक्षा।
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एक दीवाने की दीवानियत: प्यार या नियंत्रण की कहानी?

फिल्म का संदेश

‘एक दीवाने की दीवानियत’ पर सबसे बड़ा सवाल इसका ‘संदेश’ है। क्या यह फिल्म प्यार की शक्ति को दर्शाती है या प्यार के नाम पर नियंत्रण की संस्कृति को बढ़ावा देती है? विक्रम का किरदार अपने प्रेम को इतनी तीव्रता से जीता है कि वह दूसरे की स्वतंत्रता का अतिक्रमण कर देता है। यह वही समस्या है जो हमारे समाज में ‘टॉक्सिक रोमांस’ की कहानियों के साथ बार-बार दोहराई जाती है — “अगर वो ना कहे तो और प्यार दिखाओ, पीछा करो, तब तक जब तक हां न कह दे।”


सिने-सोहबत

हाल ही में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘एक दीवाने की दीवानियत’ का निर्देशन मिलाप मिलन झावेरी ने किया है। पहले हिंदी सिनेमा में प्रेम कहानियाँ ‘काजल और पलक के बीच’ लिखी जाती थीं, जहां प्यार एक भाव था, एक प्रतीक्षा थी। लेकिन आज की कुछ फिल्मों में प्यार अक्सर जुनून, ताबड़तोड़ पीछा और ‘इंटेंस रोमांस’ के नाम पर एक अस्वस्थ आसक्ति का रूप ले चुका है। ‘एक दीवाने की दीवानियत’ इसी बदलते सिनेमाई परिदृश्य का एक नया उदाहरण है, एक ऐसा रोमांटिक ड्रामा जो जितना दिल को छूने की कोशिश करता है, उतना ही असहज भी कर देता है।


कहानी का सार

कहानी विक्रम आदित्य भोसलें (हर्षवर्धन राणे) की है, जो एक प्रभावशाली राजनेता का बेटा है। ज़िंदगी उसके लिए किसी विलासिता से कम नहीं, लेकिन दिल के किसी कोने में एक खालीपन है। यह खालीपन उसे भरता है जब वह सुपरस्टार अदा रंधावा (सोनम बाजवा) से मिलता है। अदा एक चमकती, आत्मविश्वासी अभिनेत्री है जो अपने करियर की ऊंचाइयों पर है। विक्रम का आकर्षण जल्दी ही जुनून में बदल जाता है, और वहीं से शुरू होती है इस फिल्म की ‘दीवानियत’।


फिल्म की विशेषताएँ

पहले आधे घंटे में फ़िल्म एक क्लासिक प्रेम कहानी का माहौल रचती है — संगीत, लोकेशन, और कैमरे का रोमांटिक स्पर्श आपको पुराने ज़माने के ‘दिलवाले’ युग में ले जाता है। लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, यह ‘रोमांस’ एक अस्थिर दीवानगी में बदल जाता है, जहां प्यार और अधिकार की रेखा धुंधली पड़ जाती है। मिलाप झावेरी की फ़िल्मों में ‘ड्रामा’ कभी कम नहीं होता। इस फ़िल्म में भी हर संवाद, हर दृश्य में अतिनाटकीयता झलकती है।


अभिनय और तकनीकी पहलू

हर्षवर्धन राणे इस फ़िल्म की रीढ़ हैं। उनकी आंखों में बेचैनी, गुस्सा और चाहत का तूफान एक साथ दिखता है। सोनम बाजवा अपने किरदार में संयमित हैं, पर स्क्रिप्ट उन्हें सीमित अवसर देती है। मिलाप झावेरी का निर्देशन तकनीकी रूप से सशक्त है। भव्य लोकेशंस, स्लो-मोशन शॉट्स, और क्लोज़-अप्स में वे पुराने बॉलीवुड की याद दिलाते हैं।


संगीत और सिनेमेटोग्राफी

फिल्म का संगीत निस्संदेह इसका सबसे बड़ा आकर्षण है। अरिजीत सिंह, जुबिन नौटियाल और श्रेया घोषाल जैसे गायक अपनी आवाज़ों से फिल्म को भावनात्मक ऊंचाई देते हैं। सिनेमेटोग्राफी में भव्यता है, चाहे मुंबई की राजनीतिक चमक हो या मनाली की पहाड़ियों का एकांत, कैमरा हर भावना को चित्र में ढाल देता है।


समाज पर प्रभाव

‘एक दीवाने की दीवानियत’ पर सबसे बड़ा प्रश्न इसका ‘संदेश’ है। क्या यह फिल्म प्यार की ताकत दिखाती है या प्यार के नाम पर नियंत्रण की संस्कृति को बढ़ावा देती है? फिल्में समाज का आईना होती हैं, और जब सिनेमा बार-बार ऐसे पात्रों को ‘हीरो’ बना देता है, तो वह अनजाने में उस असमानता को सामान्य बना देता है जो असल ज़िंदगी में महिलाओं को असुरक्षित करती है।


बॉक्स ऑफिस प्रदर्शन

दिलचस्प बात यह है कि फिल्म के नैरेटिव डिफेक्ट्स के बावजूद यह बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचा रही है खासकर सिंगल स्क्रीन थियेटरों में। बिजनेस और मार्केटिंग के नजरिए से देखें तो रिलीज़ के पहले दस दिनों में इसने करीब ₹50 करोड़ का कारोबार कर लिया है।


निष्कर्ष

‘एक दीवाने की दीवानियत’ को एक पंक्ति में परिभाषित किया जाए तो यह “एक खूबसूरत पागलपन की कहानी है, जो खुद अपनी आग में जल जाती है।” यह एक ऐसी प्रेम कथा है जो अपने ‘दीवानेपन’ को महिमा मंडित करती है, पर दर्शक से यह नहीं पूछती कि उस दीवानगी की कीमत क्या है।