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क्या डिजिटल युग में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है? जानें भारत की भूमिका

डिजिटल युग में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक गंभीर संकट का सामना कर रही है। इंटरनेट को पहले एक लोकतांत्रिक मंच माना जाता था, लेकिन अब यह वैश्विक तकनीकी कंपनियों के एल्गोरिद्म द्वारा नियंत्रित हो रहा है। भारत इस लड़ाई का केंद्र बन चुका है, जहां ऑनलाइन भाषण और निलंबन पर अदालतें लगातार निर्णय दे रही हैं। क्या लोकतंत्र को टिकाऊ बनाने के लिए एक नए सामाजिक अनुबंध की आवश्यकता है? जानें इस महत्वपूर्ण विषय पर विस्तार से।
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क्या डिजिटल युग में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है? जानें भारत की भूमिका

डिजिटल मंचों पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संकट


इंटरनेट को पहले एक ऐसा मंच माना जाता था, जहां हर व्यक्ति अपनी आवाज उठा सकता था। यह एक ऐसा स्थान था, जहां लोग एकजुट होकर प्रभाव डाल सकते थे। लेकिन अब यह धारणा बदल चुकी है। आज, अभिव्यक्ति की लड़ाई इस बात पर केंद्रित है कि किसकी आवाज को सुना जाएगा। यह निर्णय अब अदालतों या संसदों के बजाय, वैश्विक तकनीकी कंपनियों के एल्गोरिद्म द्वारा लिया जा रहा है।


सेंसरशिप का नया रूप

डिजिटल युग की एक महत्वपूर्ण सच्चाई यह है कि स्वतंत्रता और पहुंच एक समान नहीं हैं। एक पोस्ट भले ही हटाई न जाए, लेकिन उसे कम दृश्यता दी जा सकती है या पूरी तरह से अदृश्य बना दिया जा सकता है। आज सेंसरशिप का असली हथियार दृश्यता है। हर व्यक्ति एक ऐसे सिस्टम में बोल रहा है, जो यह तय करता है कि उसकी बात कितनी दूर जाएगी।


यह शक्ति उन प्लेटफार्मों के पास है, जो तटस्थ होने का दावा करते हैं, लेकिन अब वे तटस्थ नहीं रह गए हैं। पहले स्पैम को रोकने के लिए बनाई गई मॉडरेशन प्रणाली अब विचारधारा के फ़िल्टर के रूप में कार्य कर रही है। इस नए डिजिटल वातावरण को तीन शक्तियों द्वारा नियंत्रित किया जा रहा है: मॉडरेशन, मैनिपुलेशन और प्लेटफॉर्म न्यूट्रैलिटी का पतन।


मॉडरेशन और मैनिपुलेशन की भूमिका

मॉडरेशन अब तकनीकी से ज्यादा राजनीतिक निर्णय बन चुका है। रिएक्टिव, प्री-एक्टिव और एल्गोरिद्मिक मॉडरेशन सभी एक क्लिक में किसी क्रिएटर की आय को खत्म कर सकते हैं या सार्वजनिक बहस का रुख बदल सकते हैं। अधिकांश उपयोगकर्ताओं को यह नहीं पता कि उनकी ऑनलाइन दुनिया कितनी इंजीनियर की गई है।


दूसरी ओर, मैनिपुलेशन का प्रभाव भी बढ़ रहा है। गुस्सा और विवाद क्लिक लाते हैं, और टकराव एंगेजमेंट को बढ़ाता है। फीड अब जनता का आईना नहीं, बल्कि प्लेटफॉर्म की कमाई के लिए एक प्रभावकारी मशीन बन गई है।


भारत की भूमिका और चुनौतियाँ

भारत इस वैश्विक लड़ाई का केंद्र बन चुका है। इंटरमीडियरी नियम प्लेटफार्मों को संदेशों का स्रोत बताने और तुरंत हटाने के आदेश मानने के लिए बाध्य करते हैं। चुनावों के दौरान डीपफेक तेजी से बढ़ रहे हैं, जबकि इसके खिलाफ कोई ठोस कानून नहीं है।


अदालतें लगातार ऑनलाइन भाषण और खातों के निलंबन पर निर्णय दे रही हैं। भारत के निर्णय वैश्विक डिजिटल नियमों को प्रभावित करेंगे। स्पष्ट है कि आज अभिव्यक्ति की लड़ाई सार्वजनिक मंचों पर नहीं, बल्कि अनुशंसा एल्गोरिद्म के भीतर लड़ी जा रही है।


नए सामाजिक अनुबंध की आवश्यकता

यदि लोकतंत्र को डिजिटल युग में टिकाऊ बनाना है, तो एक नए सामाजिक अनुबंध की आवश्यकता है, जो प्लेटफार्मों की पारदर्शिता, जवाबदेही और नागरिकों की शक्ति पर आधारित हो। जब तक ऐसा नहीं होता, सच का निर्णय एल्गोरिद्म करेंगे और इसके परिणाम लोकतंत्र को भुगतने होंगे।


लेखक की पहचान

हिमांशु शेखर, ग्रुप एडिटर, दैनिक भास्कर