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जितिया व्रत: माताओं का संतान के लिए समर्पण और तपस्या

जितिया व्रत हिंदू धर्म में माताओं द्वारा अपने बच्चों की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि के लिए किया जाने वाला एक महत्वपूर्ण उपवास है। यह व्रत न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह मां और संतान के रिश्ते में समर्पण और तपस्या की भावना को भी दर्शाता है। इस लेख में जानें इस व्रत का महत्व, इसकी विधि और पौराणिक कथा, जो इसे और भी विशेष बनाती है।
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जितिया व्रत: माताओं का संतान के लिए समर्पण और तपस्या

जितिया व्रत का महत्व

नई दिल्ली: हिंदू धर्म में जितिया व्रत को कठिनतम व्रतों में से एक माना जाता है। यह व्रत न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह मां और संतान के बीच समर्पण और तपस्या की भावना को भी दर्शाता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड के कई क्षेत्रों में इसे ममता का सबसे बड़ा प्रतीक माना जाता है। इसे जीवित्पुत्रिका या जीउतिया व्रत के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन माताएं अपने बच्चों की लंबी उम्र, अच्छे स्वास्थ्य और उज्ज्वल भविष्य के लिए निर्जला उपवास करती हैं।


व्रत का समय और विशेष संयोग

यह व्रत हर साल आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। इस वर्ष, यह व्रत रविवार सुबह 7:23 बजे से शुरू होकर सोमवार तड़के 3:06 बजे तक रहेगा। इस बार जितिया व्रत का संयोग रोहिणी नक्षत्र, सिद्धि योग और रवि योग के साथ है, जो इसे और भी फलदायी बनाता है। चंद्रमा वृषभ राशि में दिनभर रहेगा और चंद्रोदय रात्रि 11:18 बजे होगा, जिससे रात्रिकालीन पूजा का महत्व बढ़ जाता है।


व्रत की विधि

इस व्रत में महिलाएं पूरे दिन अन्न-जल का सेवन नहीं करतीं और शाम को मिट्टी या गोबर से बनाए गए जीमूतवाहन देवता और जितिया माता की पूजा करती हैं। जीमूतवाहन एक पौराणिक पात्र हैं, जिन्होंने एक नाग बालक की रक्षा के लिए अपनी जान की परवाह नहीं की थी। पूजा के साथ जितिया व्रत कथा का पाठ करना अनिवार्य होता है।


पारण और पारंपरिक व्यंजन

सोमवार को नवमी तिथि में व्रत का पारण किया जाएगा। इस अवसर पर पारंपरिक रूप से नोनी साग, मडुआ रोटी और पंचसब्जी जैसे व्यंजन बनाए जाते हैं। व्रती महिलाएं पूजा और कथा के बाद ही अन्न-जल ग्रहण करती हैं। पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार जंगल में चील और सियारिन ने यह व्रत रखने का संकल्प लिया। चील ने नियमों का पालन किया, जबकि सियारिन भूख के कारण रात को मांस खा गई।


कथा का संदेश

अगले जन्म में चील एक मंत्री की बेटी बनी और सियारिन राजकुमारी। चील के बच्चे स्वस्थ और दीर्घायु हुए, जबकि सियारिन की संतानें जन्म लेते ही मर जाती थीं। जब सियारिन को अपनी गलती का अहसास हुआ, तो उसने फिर से जितिया व्रत किया और उसे भी स्वस्थ संतान का सुख मिला।