भारतीय संविधान: 75 वर्षों का अनुभव और उसकी वास्तविकता

संविधान का सारांश और प्रश्न
26 जनवरी 1950 को भारत ने जो संविधान अपनाया, वह 75 वर्षों के अनुभवों का संकलन है। मेरा सीधा सवाल है कि क्या भारतीय संविधान और उसकी प्रस्तावना में शामिल धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, गणतंत्र, समता, बंधुता, न्यायप्रियता, और सत्यमेव जयते जैसे सिद्धांतों का वास्तविक अर्थ भारत की प्राप्तियों और अनुभवों से मेल खाता है? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या विपक्षी नेता राहुल गांधी जैसे विचारक यह कह सकते हैं कि धर्मनिरपेक्षता ने देश की आत्मा को सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष बना दिया है? जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है।
समाज का स्वरूप और संविधान की भूमिका
क्या भारत वास्तव में समता, समाजवाद और बंधुता का प्रतीक बन पाया है? क्या यहां की जनता को सशक्त बनाया गया है या फिर सरकार ही माई बाप बन गई है? क्या संविधान के लागू होने के बाद हम सत्यवान, चरित्रवान और नैतिक बने हैं, या फिर पतन की ओर बढ़ रहे हैं?
संविधान की आत्मा और उसकी वास्तविकता
मेरे विचार में, भारत का संविधान भारत की आत्मा से अलग है। संविधान सभा ने जो संविधान तैयार किया, वह भारतीय संस्कृति और परंपरा से प्रेरित नहीं था, बल्कि यह अंग्रेजों के ढांचे पर आधारित था। इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं है कि जो भी नेता सत्ता में आता है, वह तुरंत अंग्रेजी और मुगली मानसिकता का प्रतीक बन जाता है।
संविधान का समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता
क्या संविधान में समाजवाद का मुखौटा असली है या यह केवल एक दिखावा है? क्या धर्मनिरपेक्षता वास्तव में अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच विभाजन का कारण बन गई है?
डॉ. आंबेडकर की चेतावनी
डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संविधान के बारे में कई बार अपनी चिंता व्यक्त की थी। उन्होंने कहा था कि हम एक विरोधाभासी जीवन में प्रवेश कर रहे हैं, जहां राजनीति में समानता होगी, लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता बनी रहेगी।
संविधान और जातीय पहचान
संविधान ने नागरिकता तो दी, लेकिन गरिमा नहीं। यह जातियों के बीच विभाजन को बढ़ावा देता है। आज हर नागरिक संविधान के माध्यम से आधुनिकता की सीढ़ियां चढ़ना चाहता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि संविधान ने पुरानी बेड़ियों को और मजबूत किया है।
निष्कर्ष
संविधान ने हमें नागरिकता तो दी, लेकिन असमानता और जातीय पहचान के टैग में बांध दिया। यह स्थिति आज भी बनी हुई है, और यह सवाल उठता है कि क्या हम वास्तव में स्वतंत्रता और समानता की ओर बढ़ रहे हैं?