क्या पशु बलि धार्मिक परंपरा है या अमानवीय कृत्य?

धार्मिक परंपराओं की विविधता
भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं की विविधता इतनी विशाल है कि हर क्षेत्र में पूजा-पद्धति और मान्यताएं अलग-अलग दिखाई देती हैं। इन्हीं परंपराओं में एक अत्यंत विवादित परंपरा है – पशु बलि। विशेषकर नवरात्र, काली पूजा, दुर्गा पूजा जैसे पर्वों में कुछ स्थानों पर आज भी पशु बलि दी जाती है। सवाल उठता है – क्या पूजन में पशु बलि देना सही है? क्या यह धार्मिक रूप से स्वीकार्य है या यह एक अमानवीय कृत्य है? आइए जानें इस पर शास्त्रों का क्या मत है।
वेद और उपनिषदों का दृष्टिकोण
क्या कहती हैं वेद और उपनिषद?
हिंदू धर्म के मूल आधार वेद हैं, जिनमें यज्ञ और बलिदान का वर्णन मिलता है। लेकिन इसका अर्थ आज के 'पशु हत्या' से अलग है। वेदों में यज्ञ का तात्पर्य आत्मबलिदान, अहंकार का त्याग और प्रतीकात्मक आहुति से था। उपनिषदों में विशेष रूप से हिंसा और पशु हत्या को नकारा गया है। ईशावास्य उपनिषद में स्पष्ट कहा गया है कि सभी प्राणी परमात्मा की सृष्टि हैं और उन्हें कष्ट देना अधर्म है।
धर्म शास्त्रों में हिंसा पर निषेध
धर्म शास्त्रों में हिंसा पर निषेध
मनुस्मृति, जो प्राचीन धर्मशास्त्रों में से एक है, उसमें भी कहा गया है –
"अहिंसा परमो धर्मः" – अर्थात, अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म है।
भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने भी अहिंसा को श्रेष्ठ गुण बताया है। वेदांत दर्शन और जैन, बौद्ध धर्म भी किसी भी प्रकार की हिंसा को अस्वीकार्य मानते हैं।
तांत्रिक परंपरा और पशु बलि
तांत्रिक परंपरा और पशु बलि
कुछ क्षेत्रों में तांत्रिक पूजा पद्धति में पशु बलि की मान्यता रही है, विशेषकर शक्तिपीठों और काली पूजा में। नेपाल, असम, ओडिशा और बंगाल जैसे क्षेत्रों में आज भी यह परंपरा कुछ स्थानों पर जीवित है। तांत्रिक परंपरा में यह विश्वास है कि बलि से देवी प्रसन्न होती हैं, लेकिन यह मान्यता शास्त्रों की बजाय लोक विश्वास और क्षेत्रीय परंपराओं पर आधारित है।
आधुनिक संतों और विचारकों की राय
आधुनिक संतों और विचारकों की राय
स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, दयानंद सरस्वती जैसे संतों ने पशु बलि की परंपरा का विरोध किया है। उन्होंने इसे अज्ञान, अंधविश्वास और हिंसा का प्रतीक बताया। गांधीजी ने कहा था, "ईश्वर को पाने के लिए हिंसा नहीं, करुणा चाहिए।"
कानून और सामाजिक दृष्टिकोण
कानून और सामाजिक दृष्टिकोण
भारत में प्रिवेंशन ऑफ क्रूएल्टी टू एनिमल्स एक्ट, 1960 के तहत सार्वजनिक रूप से पशु बलि देना अवैध है। हालांकि कुछ धार्मिक स्थलों पर विशेष अनुमति के तहत यह अब भी होती है। लेकिन समाज का बड़ा वर्ग अब इसे क्रूरता और पुरानी सोच मानता है।
निष्कर्ष
निष्कर्ष
शास्त्रों की गहराई से व्याख्या करें तो स्पष्ट है कि हिंदू धर्म अहिंसा और करुणा पर आधारित है। पशु बलि न तो वेदों का आदेश है, न उपनिषदों का समर्थन। यह परंपरा अधिकतर तांत्रिक और क्षेत्रीय मान्यताओं पर आधारित रही है। आज समय की मांग है कि हम करुणा और अहिंसा को अपनाएं, क्योंकि सच्ची पूजा वह है जो किसी को दुख न पहुंचाए।