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आपातकाल के 50 वर्ष : यह अराजकता और तानाशाही का काला दौर था

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आपातकाल के 50 वर्ष : यह अराजकता और तानाशाही का काला दौर था


आपातकाल के 50 वर्ष : यह अराजकता और तानाशाही का काला दौर था


आपातकाल के 50 वर्ष : यह अराजकता और तानाशाही का काला दौर था


यह इंदिरा की सबसे बड़ी गलती थी, सत्ता पर काबिज रहने के लिए की थी लोकतंत्र की हत्या : रामपाल सिंह

रामानुज शर्मा

नई दिल्ली, 09 अक्टूबर (हि.स.)। आपातकाल को अगर बर्बर, अराजकता और तानाशाही के काले दौर की संज्ञा दी जाये तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह ऐसा वक्त था, जिसमें पुलिस और प्रशासन निरंकुश था। किसी की कोई सुनवाई नहीं थी। ऐसा लगता था कि हम लोकतांत्रिक देश में नहीं, अपितु एक गुलाम देश में रह रहे हों। यह इंदिरा की सबसे बड़ी गलती थी। सत्ता पर काबिज रहने के लिए उन्होंने लोकतंत्र की हत्या की थी।

आपातकाल को बर्बर, अराजकता और तानाशाही का काला दौर करार देते हुए अमोद अरोड़ा बताते हैं कि यह ऐसा वक्त था जिसमें पुलिस और प्रशासन निरंकुश था। किसी की कोई सुनवाई नहीं थी। ऐसा लगता था कि हम लोकतांत्रिक देश में नहीं अपितु एक गुलाम देश में रह रहे हों। वे कहते हैं कि आपातकाल का विरोध करने वालों खासकर राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ के पदाधिकारियों, स्वयंसेवकों, जनसंघ से जुड़े लोगों और विपक्ष के नेताओं के साथ अमानवीय व्यवहार किया गया। उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी गईं।

बिजनौर जिले के नजीबाबाद निवासी जनसंघ के युवा वाहिनी के जिला संयोजक और छात्र नेता रहे अमोद अरोड़ा ने हिन्दुस्थान समाचार के साथ बातचीत में कहा कि आपातकाल लोकतांत्रिक व्यवस्था पर कुठाराघात था। इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए लोकतंत्र को कुचलने का कृत्य किया था। अमोद अरोड़ा बिजनौर में जनसंघ से अकेले ऐसे युवा छात्र नेता थे, जिन्होंने आपातकाल के खिलाफ बिगुल फूंका था। उन्होंने पूरी निर्भीकता के साथ इसका विरोध किया जबकि उनके बाकी साथी डर के मारे भूमिगत हो गए थे।

उन्होंने कई बार छात्रों को एकत्र कर आपातकाल के खिलाफ सभाएं कीं और उन्हें इसका विरोध करने के लिए प्रेरित किया। आगरा से बीएमएस करने के साथ मुरादाबाद से हिन्दी में परास्नातक की शिक्षा ले रहे अरोड़ा की उस समय परीक्षाएं चल रही थीं। इसके बावजूद उन्होंने आपातकाल का मुखर विरोध किया। उन्हें परीक्षा के दौरान ही गिरफ्तार कर मुरादाबाद जेल में बंद कर दिया गया था। इसके बाद जब उनके साथी छात्रों को पता चला तो वे लोग वहां प्रदर्शन करने के लिए पहुंच गए। छात्र हर दिन मुरादाबाद जेल के बाहर पहुंचते और प्रदर्शन कर नारे लगाते थे। एक हफ्ते के बाद उन्हें पैरोल पर जेल से रिहा कर दिया गया। उन्हें गुंडे और अपराधियों के साथ रखा गया था। इससे सरकार की मानसिकता और उत्पीड़न को सहज ही समझा जा सकता है। इसके कारण वे एमए हिन्दी की परीक्षा नहीं दे पाए। उन्होंने अपनी परीक्षा अगले वर्ष दी।

78 वर्षीय लोकतंत्र रक्षक सेनानी डॉ. अमोद अरोड़ा के राजनीतिक गुरु और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पंडित शंभूनाथ कौशिक के सानिध्य में राजनीति की बरीकियां सीखी थीं। उन्होंने कौशिक के साथ बांग्लादेश मान्यता आंदोलन में भी भाग लिया था। शंभूनाथ कौशिक का हाल ही में 93 वर्ष की आयु में निधन हुआ है। ने नजीबाबाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आधार स्तंभ थे।

वर्तमान में पंडित दीनदयाल उपाध्याय सेवा प्रतिष्ठान के जिला अध्यक्ष होम्योपैथिक प्रैक्टिशनर डॉ. अरोड़ा ने बताया कि पंडित शंभू नाथ कौशिक ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ बहुत सारे आंदोलनों में भाग लिया था। अटल जी के साथ दो बार जेल भी गए थे। आपातकाल के बाद हुए चुनाव में जनसंघ का विलय जनता पार्टी में हो गया था। जनता पार्टी टूटने के बाद भारतीय जनता पार्टी बनी। इसके प्रथम राष्ट्रीय अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेई और महामंत्री लालकृष्ण आडवाणी बने।

छह अप्रैल 1980 को जिले में पंडित शंभूनाथ कौशिक भाजपा के मंडल अध्यक्ष बनाये गये और डॉ. अरोड़ा को महाममंत्री का दायित्व मिला था। उन्होंने सात साल तक भाजपा महामंत्री के रूप में जिम्मेदारी निभाई। उनके पिता स्व. पन्नालाल अरोड़ा सर्राफ जनसंघ के बहुत बड़े कार्यकर्ता और पदाधिकारी थे, जिनसे उन्हें बचपन में ही जनसंघ के संस्कार मिले। माधव सदाशिव गोलवलकर, पंडित दीनदयाल उपाध्याय और नाना जी देशमुख उनके यहां आया करते थे। नाना जी उनके पिता के अभिन्न मित्रों में से एक थे। उनके पिता कहते ये कि वे पहले संघ के स्वयंसेवक हैं फिर और कुछ। वे नियमित रूप से शाखा में जाते थे। उनका पूरा परिवार संघ के संस्कार से अनुप्राणित है।

बिजनौर के ही नजीबाबाद के सावित्री एन्क्लेव निवासी 81 वर्षीय सीपीआई-एम नेता और लोकतंत्र रक्षक सेनानी रामपाल सिंह के अनुसार आपातकाल इंदिरा गांधी की बहुत बड़ी गलती थी। यह उनका अलोकतांत्रिका, दमनकारी और फासिस्टवादी फैसला था। उस समय जो दमन हो रहा था, उससे स्पष्ट था कि अपनी सत्ता बचाने के लिए वे कुछ भी कर सकती हैं।

रामपाल सिंह तब 30 वर्ष के थे। उनकी शादी हो चुकी थी। उनकी पत्नी पुष्पा का भी उन्हें बहुत सपोर्ट मिला था। वे कीरतपुर के अपने गांव बरमपुर में खेती-बाड़ी करने के साथ राजनीतिक गतिविधियों में भी सक्रिय रूप से भाग लेते थे। विज्ञान से स्नातक रामपाल के अनुसार आपातकाल का विरोध करना लोकतंत्र का तकाजा था। हम सबने इसका विरोध करने का निर्णय लिया। यह लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन था। सरकार दमन के रास्ते चल पड़ी थी। लोगों की जबरन गिरफ्तारियां की जा रही थीं। इंदिरा जी ने अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए संविधान को कुचलने का प्रयास किया था।

जनविरोध के चलते उन्हें चुनाव कराना पड़ा, जिसमें कांग्रेस की बुरी तरह हार हुई और उसे सत्ता से बेदखल होना पड़ा। वर्ष 1969 से सीपीआई-एम की राजनीति में सक्रिय रामपाल सिंह उस समय टिहरी में डैम को लेकर चल रहे आंदोलन में आयोजित सभा को संबोधित कर रहे थे। उन्हें आभास था और उन्होंने कहा भी था कि इमरजेंसी कभी भी लग सकती है। आखिरकार 25 जून 1975 की रात इमरजेंसी लागू कर दी गई थी। तीन चार दिन तक टिहरी, ऋषिकेश और देहरादून में रहने के बाद वापस आये और अंडर ग्राउंड होकर लोगों को जागरूक करने के साथ ही आपातकाल के खिलाफ लामबंद करने लगे।

दिसंबर 1976 में नहटौर कस्बे में कपड़ा फैक्टरियों की समस्याओं को लेकर श्रमिकों का संघर्ष चल रहा था। वे उसको संबोधित कर रहे थे। उनके साथ कामरेड अलबेल सिंह थौर और डॉ. इब्राहीम भी थे। पुलिस ने उनको सभा के दौरान ही गिरफ्तार कर लिया और रातभर नहटौर थाने में रखा। पुलिसकर्मी अच्छे थे। उनके साथ अच्छा व्यवहार किया, उन्हें खाना खिलाया। अगले दिन उन्हें बिजनौर जेल भेज दिया गया था। जेल में भी उनके साथ बहुत अच्छा व्यवहार हुआ। उन्हें मनपसंद खाना भी मिल जाता था। करीब साढ़े तीन महीने जेल में रखने के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।

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हिन्दुस्थान समाचार / रामानुज शर्मा