अगस्त क्रांति : अंग्रेज कलेक्टर भाग खड़ा हुआ और बलिया हो गया आजाद


बलिया, 18 अगस्त (हि.स.)।
उत्तर प्रदेश के बलिया में हुई अगस्त क्रान्ति 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के अत्यन्त प्रेरणास्पद अध्यायों में से एक है।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने बम्बई अधिवेशन (अगस्त, 1942) में प्रसिद्ध अंग्रेजों भारत छोड़ो आन्दोलन का प्रस्ताव पारित किया था। गांधी जी ने भारत के लोगों को मंत्र दिया करो या मरो लेकिन, इससे पहले कि कांग्रेस इस आन्दोलन को शुरू कर पाती, ब्रिटिश प्राशासनिक तन्त्र ने इसे दबाने के लिए त्वरित और कठोर कार्यवाही शुरू कर दी। सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया तथा स्वयं कांग्रेस को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया। उद्विग्न भारत इस दमनकारी कृत्य के खिलाफ स्वतः उठ खड़ा हुआ। समूचे देश में एक छोर से दूसरे छोर तक अंग्रेजो भारत छोड़ो के उद्घोष के साथ सार्वजनिक क्रांतियाँ भड़क उठीं।
देश के अनेक भागों में स्थापित राष्ट्रीय सरकारों की श्रृंखला भारत छोड़ो आन्दोलन की एक प्रमुख विशेषता थी, हालांकि, इनमें से अधिकांश सरकारें केवल कुछ ही हफ्तों तक चल सकी।
इतिहासकार डा. विश्व प्रकाश मिश्र बताते हैं कि बलिया जिले में क्रांति की शुरूआत विद्यार्थियों के विरोध-प्रदर्शनों के साथ हुई। कुछ बालिकाओं की गिरफ्तारी तथा बाजार में पुलिस द्वारा की गई अचानक गोलीबारी से लोगों के दिलों में आक्रोश की लहर उठने लगी। उत्तेजित और गुस्से से भरी जनता ने विरोधस्वरूप स्वतः प्रेरित होकर रेल की पटरियां उखाड़ डालीं, तार-लाइनें काट दीं तथा ग्रामीण इलाकों में रेलवे और पुलिस थानों को आग लगा दी। स्थानीय जनता ने दो-चार दिनों के भीतर ही जिले के पुलिस थानों, सरकारी खजानों और अन्य सरकारी कार्यालयों पर हमला करके उन पर अधिकार कर लिया। सरकारी अधिकारियों ने तत्काल आत्मसमर्पण कर दिया और इन भवनों पर राष्ट्रीय ध्वज फहरा उठा। समूचे जिले पर अधिकार होने तथा उपनिवेशवादी प्रशासनिक तंत्र को ठप करने के फलस्वरूप एक समानांतर 'सरकार' गठित करने का दायित्व इस क्रांति के नेताओं पर आन पड़ा। विश्व प्रकाश मिश्र ने बताया कि उन नेताओं ने इस दायित्व को पूरी जिम्मेवारी तथा कुशलता से निभाया और 19 अगस्त को बलिया में राष्ट्रीय सरकार का गठन हुआ। इस सरकार का नेतृत्व एक करिश्माई नेता चित्तू पाण्डेय ने किया जिनको जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस ने 'बलिया का शेर' कहकर प्रशंसा की। बलिया की समूची जनता ने राष्ट्रीय सरकार का समर्थन किया। हजारों रूपये भी दिये ताकि यह सरकार अपने प्रशासनिक दायित्वों का निर्वहन कर सके।
दुर्भाग्यवश, ब्रिटिश शासकों द्वारा की गई कठोर दमनात्मक कार्यवाही के कारण नई सरकार कुछ दिन ही टिक सकी। हालांकि अंततोगत्वा इस आन्दोलन को दबा दिया गया लेकिन यह राष्ट्रीयता की भावनाओं को पूरी गंभीरता और जोश के साथ प्रदर्शित करने में सफल रहा। निस्संदेह, इस आन्दोलन ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत में उपनिवेशवाद के गीने-चुनें ही रह गए थे।
बलिया की अगस्त क्रांति
बलिया
अगस्त क्रांति आन्दोलन का पहला चरण नौ अगस्त 1942 से शुरू हुआ। उस दिन 15 वर्षीय साहसी कार्यकर्त्ता सूरज प्रसाद ने सेंसर के बाद भी एक हिन्दी सामाचार पत्र लेकर उमाशंकर सिंह से सम्पर्क किया तथा भोपा बजाकर गाँधी जी समेत अन्य बलिया जनपद के प्रमुख नेताओं के गिरफ्तारी की जानकारी दी।
10 अगस्त 1942 की सुबह आठ बजे शहर ओक्डेनगंज पुलिस चौकी के पूर्वी चौराहा पर श्री उमाशंकर सोनार अन्य साथियों के साथ 1942 की क्रांति का शंखनाद किए। जो नगर की परिक्रमा करते हुए चौक पहुँचकर सभा के रूप में परिवर्तित हो गया। 12 अगस्त 1942 को आन्दोलन विकराल रूप धारण कर लिया। जिसकी गूंज देश-विदेश तक फैल गयी। क्रांति की इस लहर में भारत सचिव एमरी के वक्तव्य गाँधी व उनके सहयोगियों को गिरफ्तार पर जनता से अलग कर दिया गया। जिसके विरोध में स्कूली बच्चों ने जुलूस निकाला उन पर शहर कोतवाल और डिप्टी कलेक्टर ने पश्चिम रेलवे क्रासिंग पर रोक कर लाठी चार्ज किया।
13 अगस्त 1942 को गुलामी के जंजीरों ने जजी कचहरी पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया। 14 अगस्त 1942 को देश की आजादी के लिए क्रांतिकारी महिलाओं के खून में उबाल देख छात्राएं भी उत्तेजित हो क्रांति की ज्वाला में कूदपड़ी। बाँसडीह में क्रांतिकारी छात्रों का एक जुलुस पुलिस द्वारा अधिकृत मण्डल कांग्रेस कमेटी के दफ्तर पर गया।
15 अगस्त 1942 को पूरे जिले में एक जूट होकर जोरदार प्रदर्शन किया गया। हजारों की संख्या में क्रांतिकारियों का जनसमूह 'इन्कलाब जिन्दाबाद' और 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का नारा लगाते हुए अपराह्न तीन बजे सुरेमनपुर रेलवे स्टेशन पर पहुँच कर रेल की पटरियों को उखाड़ फेंका।
16 अगस्त 1942 को बलिया शहर के महिला क्रांतिकारियों ने जुलुस निकाला। लोहा पट्टी में अंग्रेजो द्वारा गोलियाँ चलाई गई जिसमें नौ लोग शहीद हो गये। चितबड़ागाँव रेलवे स्टेशन फूक दिया गया। नरही थाने पर थानेदार ने खुद तिरंगा फहरा दिया। 17 अगस्त 1942 रसड़ा में डाकखाना और रेलवे स्टेशन जला दिया गया सहतवार में थाना, डाकखाना और रेलवे स्टेशन जला दिया गया। इसी दिन बाँसडीह तहसील
पर जनता का कब्जा हो गया।
18 अगस्त 1942 बाँसडीह थाना एवं तहसील का रिकार्ड जलाकर उस पर झण्डा फहराया गया और रेवती में थाना फूंक दिया गया। 18 अगस्त को बैरिया में घटी घटना ने वहाँ के क्रांतिकारियों का नाम इतिहास में अमर कर दिया। वहाँ की जनता ने जिस साहस और बहादुरी का परिचय दिया वह स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास का एक अनोखी घटना है। बैरिया थाने पर अपराह्न एक बजे दिन में एकत्र हुए हजारों क्रांतिकारियों में 50 महिलाएं भी शामिल थीं। क्रांतिकारियों को देखते ही थानेदार ने गोली चलाने का आदेश दे दिया। जिसमे 19 लोग शहीद हो गये। 18 वर्षीय युवक कौशल कुमार थाने के पीछे झण्डा लेकर थाने के छत पर चढ़ गया और उसने ज्योही तिरंगा (कौशल ध्वज) फहराया तब तक सिपाही महमूद खाँ ने गोली मार दी।
वीर सपूत कौशल कुमार तिरंगा लिए लहूलुहान होकर नीचे लुढ़क गये। 19 अगस्त 1942 ब्रिटिश हुकूमत के पांव उखड़े। अंततः जेल का फाटक खोला गया और पं चित्तू पाण्डेय, राधामोहन सिंह, पं महानन्द मिश्र, विश्वनाथ चौबे तथा क्रांतिकारियों को आजाद किया गया।
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हिन्दुस्थान समाचार / नीतू तिवारी