बिहार के बगहा-वाल्मीकिनगर में बरना पर्व पर थारू समुदाय ने लिया हरियाली बचाने का संकल्प



-----48 घंटा घरों में रहे थारू, तिनका व पेड़ों को हाथ नहीं लगाया
------थरुहट में चार सौ साल से कायम है यह परंपरा
------बरना के दौरान पूरे गांव में अघोषित लॉकडाउन की स्थिति बनी रही
पश्चिम चंपारण (बगहा), 18 अगस्त (हि.स.)।
बिहार में पश्चिम चंपारण जिले के नेपाल सीमा से सटे बगह-वाल्मीकिनगर के थरूहट क्षेत्र में बरना की शुरुआत सोमवार से हो गई है। यह पर्व गत 400 साल से मनाया जा रहा है। हर वर्ष अगस्त से सितम्बर के बीच बरना पर्व मनाया जाता है। इस दौरान अलग-अलग जगहों पर 48 घंटे के लिए पाबंदी लगाई जाती है, जिसमें थारु जनजाति के लोग 48 घंटे के लिए किसी भी घास या तिनके तक को हाथ नहीं लगाते हैं। इस पर्व का उद्देश्य लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करना और पेड़-पौधों की रक्षा करना है।
इस बाबत मुखिया प्रतिनिधि रमेश महतो एवं केदार काजी ने बताया कि 16वीं शताब्दी से ही थारू समाज के लोग जंगल में निवास कर रहे हैं। समाज के लोगों ने हरियाली बचाने और पेड़-पौधों की रक्षा के लिए संकल्प ले रखा है। तब से बरना पर्व मनाया जा रहा है। इस पर्व के दौरान जनजाति के लोग लाठी-डंडों के साथ पेड़ पौधों की सुरक्षा करते हैं। पर्व की परंपरा के अनुसार इस दौरान फल और सब्जियों को भी नहीं तोड़ा जाता है। ना ही घास तोड़ी जाती है। लोग केवल पर्यावरण की रक्षा के लिए निगरानी करते हैं। माना जाता है कि बरसात में प्रकृति की कृपा बरसती है और नये पेड़-पौधे विकसित होते हैं। इस दौरान घर से निकलने पर पौधों को नुकसान पहुंचने की संभावना रहती है। इस वजह से 48 घंटे का स्वघोषित लॉकडाउन रहता है।
इस बाबत प्रकृति प्रेमी मनोज कुमार ने बताया कि थारु समुदाय के लोगों का मानना है कि बारिश के मौसम में प्रकृति पौधों का सृजन करती है। किसी नये पौधे को कोई नुकसान नहीं पहुंचे, इसलिए वे प्रकृति की रक्षा का पर्व मनाते हैं। इसी का नाम स्थानीय भाषा में बरना है। गांव में बरना लगने की घोषणा के बाद गांव में सभी गतिविधियां बंद हो जाती हैं। ना तो कोई खेत पर जा सकता है और ना खेती-बारी कर सकता है यहां तक कि मजदूरी भी नहीं।जिससे कि किसी भी हरे पौधे को कोई नुकसान ना पहुंच सके।
बरना के दौरान पूरे गांव में अघोषित लॉकडाउन की स्थिति रहती है। ना कोई गांव में आता है और ना ही कोई अपने घर से बाहर निकलता है। 48 घंटे तक लोग खुद को पेड़-पौधे, खर-पतवार व हरियाली से दूर रखते हैं। इनका मानना है कि रोजमर्रा की गतिविधि अगर रोकी नहीं गई तो पेड़-पौधों को नुकसान पहुंच सकता है। गलती से भी किसी पौधे पर पांव ना पड़ जाए, इसका वे पूरा ख्याल रखते हैं। गांव में बरना की तारीख तय होने के बाद लोग तैयारी शुरू कर देते हैं।परिवार के लिए भोजन की व्यवस्था तो करते ही हैं, पालतू मवेशियों के लिए भी चारे की व्यवस्था कर लेते हैं, ताकि उस अवधि में घर से बाहर नहीं निकलना पड़े। इस बीच महिलाएं घर में सब्जी तक नहीं काटतीं हैं। बरना की अवधि के दौरान कोई पेड़-पौधों को कहीं तोड़ ना दे, इसके लिए गांव के चार दिशाओं और चार कोनों पर नजर रखने के लिए आठ लोगों को तैनात किया जाता है, जिन्हें डेंगवाहक कहते हैं।
पीएम मोदी ने भी की थी इस प्रकृति प्रेम की चर्चा
प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी ने मन की बात में थारू समाज के इस अद्भुत प्रकृति प्रेम की चर्चा की थी। उन्होंने अपने संबोधन में कहा था कि प्रकृति की रक्षा के लिए थारू समाज ने इसे अपनी परंपरा का हिस्सा बना लिया है।
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हिन्दुस्थान समाचार / अरविन्द नाथ तिवारी