भारत पर टैरिफ की मार, चीन पर मेहरबानी : रास नहीं आ रहा अमेरिकनों को ट्रंप का डबल गेम


- डॉ. मयंक चतुर्वेदी
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भारत पर टैरिफ बम गिरा देने के बाद से दोनों देशों के व्यापारिक संबंधों में इन दिनों तनाव साफ देखा जा सकता है। वहीं दूसरी ओर ट्रंप ने चीन के छह लाख छात्रों को अमेरिकी विश्वविद्यालयों में पढ़ाई की अनुमति देने का ऐलान कर दिया है। लेकिन अब इस निर्णय से स्वयं अमेरिकी जनता अपने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से नाराज नजर आ रही है ।
दरअसल, भारत पर लगाए गए टैरिफ का असर सबसे पहले और सबसे ज्यादा अमेरिकी उपभोक्ताओं पर पड़ने वाला है। भारत अमेरिका के लिए फ़ार्मास्यूटिकल्स, आईटी प्रोडक्ट्स, इंजीनियरिंग गुड्स, टेक्सटाइल्स और आभूषणों का बड़ा आपूर्तिकर्ता है। जब इन उत्पादों पर अतिरिक्त शुल्क लगाया जाता है, तो वे स्वाभाविक रूप से महँगे हो जाते हैं। उदाहरण के तौर पर, भारतीय जेनेरिक दवाइयाँ अमेरिका के स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। उन पर टैरिफ बढ़ने का मतलब है कि अमेरिकी नागरिकों की स्वास्थ्य सेवा की लागत बढ़ जाएगी। यह एक ऐसा बोझ है जिसका कि अब अमेरिका में ही विरोध होना शुरू हो गया है।
भारत भी टैरिफ का उत्तर उसी भाषा में दे सकता है
टैरिफ का एक और पहलू भी है। भारत जैसे बड़े साझेदार देश ऐसे कदमों का जवाब टैरिफ से ही देते हैं। यदि भारत अमेरिकी वस्तुओं पर शुल्क बढ़ा दे तो अमेरिकी किसानों और निर्माताओं को सीधी चोट लगेगी। अमेरिका से भारत को जाने वाले कृषि उत्पाद, हवाई जहाज़ और टेक्नोलॉजी उपकरण महँगे हो जाएंगे, जिससे अमेरिकी निर्यातकों को बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा। कई विशेषज्ञ पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि टैरिफ का खेल अंततः दोनों देशों के लिए “नुकसान, सिर्फ नुकसान” की स्थिति बनाता है।
यही कारण है कि ट्रंप के इस फैसले की आलोचना न केवल भारत में बल्कि अमेरिका में भी हो रही है। पूर्व अमेरिकी राजदूत केनेथ आई. जस्टर ने कहा कि टैरिफ का असर केवल भारत तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि अमेरिकी कंपनियों और उपभोक्ताओं को भी महँगा पड़ेगा। जस्टर के शब्दों में, “यह टैरिफ अमेरिकी उपभोक्ताओं के विकल्पों को सीमित करेगा और आयातित वस्तुओं की कीमतें बढ़ा देगा, जिसका खामियाजा अंततः आम अमेरिकी जनता को ही भुगतना पड़ेगा।” उन्होंने जोर देकर कहा कि यह निर्णय व्यापारिक दृष्टि से भी उल्टा पड़ेगा और राजनीतिक दृष्टि से भी।
अमेरिकन पूछ रहे हैं, अपने राष्ट्रपति से प्रश्न
अमेरिकन आज यह प्रश्न उठा रहे हैं कि क्या वाकई यह निर्णय अमेरिका के दीर्घकालिक हितों और साझेदारियों के अनुरूप है। उल्लेखित है कि सबसे पहले विरोध की आवाज़ अमेरिकी संसद के निचले सदन से सुनाई दी। हाउस फॉरेन अफेयर्स कमिटी के डेमोक्रेट सदस्य खुले तौर पर ट्रंप प्रशासन पर बरस पड़े। कमिटी के वरिष्ठ सदस्य ग्रेगरी मीक्स ने इसे “tariff tantrum” बताते हुए कहा कि “ट्रंप का यह नया टैरिफी तुनक-मिज़ाजी वाला फैसला, वर्षों से अमेरिकी और भारतीय कूटनीति द्वारा साझेदारी मज़बूत करने के जो प्रयास किए गए हैं, उन पर पानी फेर सकता है।” उन्होंने चेतावनी दी कि भारत जैसा लोकतांत्रिक साझेदार सिर्फ़ “mutually respectful way” यानी पारस्परिक सम्मान के साथ चल सकता है, न कि दबाव और दंडात्मक कदमों के तहत।
भारत के साथ अमेरिका के रिश्तों को स्थायी नुकसान पहुंचाने वाला है टैरिफ निर्णय
इसी स्वर को अमेरिकी मीडिया जगत की प्रतिष्ठित आवाज फारेड जकारिया ने और अधिक पैना बनाया। उन्होंने कहा कि ट्रंप का यह फैसला भारत-अमेरिका संबंधों की दशकों पुरानी bipartisan (दोनों दलों की साझा) कोशिशों को पलट देने जैसा है। जकारिया के शब्दों में “यह कदम decades of bipartisan efforts to strengthen ties with New Delhi को उलटने जैसा है। इससे भारत के साथ अमेरिका के रिश्तों को स्थायी नुकसान पहुँच सकता है।” उनकी चिंता साफ थी कि यह सिर्फ व्यापार का मामला नहीं, बल्कि सामरिक साझेदारी का प्रश्न है।
विरोध के स्वर यहीं नहीं थमे हैं। अमेरिकी राजनीति में भारत की पुरजोर समर्थक और पूर्व संयुक्त राष्ट्र राजदूत निक्की हेली ने भी ट्रंप पर कड़ा प्रहार किया है। उन्होंने कहा कि भारत के साथ अमेरिका की साझेदारी चीन की चुनौती का संतुलन साधने के लिए अत्यंत आवश्यक है। ऐसे में यह टैरिफ अमेरिकी रणनीतिक उद्देश्यों को ही कमजोर कर देंगे। उनके शब्द थे, “अमेरिका-भारत रिश्तों को मजबूत करना चीन की आक्रामकता का जवाब देने के लिए जरूरी है। ट्रंप का यह कदम उस रणनीतिक दृष्टिकोण को कमजोर करता है।”
अमेरिकी व्यापार जगत ने खारिज किया ट्रंप के इस निर्णय को
आज सिर्फ राजनीति और कूटनीति ही नहीं, बल्कि अमेरिकी व्यापार जगत ने भी ट्रंप के भारत पर लगाए टैरिफ को पूरी तरह खारिज किया है। प्रतिष्ठित यू.एस. चैंबर ऑफ कॉमर्स ने स्पष्ट कर दिया कि वे हर उस नीतिगत कदम के खिलाफ खड़े होंगे जो मुक्त व्यापार के सिद्धांत को चोट पहुँचाता हो। चैंबर का कहना है कि, “टैरिफ का सीधा नुकसान अमेरिकी अर्थव्यवस्था, व्यापार और उपभोक्ताओं पर पड़ेगा। यह न केवल भारतीय वस्तुओं की लागत बढ़ाएगा बल्कि अमेरिकी कंपनियों के लिए भी निर्यात और आयात दोनों को कठिन बनाएगा।” उनके मुताबिक मुक्त व्यापार ही अमेरिकी समृद्धि की रीढ़ है और ट्रंप का निर्णय इसी रीढ़ पर चोट करने जैसा है।
ट्रंप का टैरिफ अमेरिका के लिए ही घाटे का सौदा साबित हो रहा
यानी ट्रंप का टैरिफ भारत को सबक सिखाने से ज़्यादा अमेरिका के लिए ही घाटे का सौदा साबित हो रहा है। उनकी यह नीति “अमेरिका फर्स्ट” की बजाय “अमेरिकी उपभोक्ता को महँगाई में धकेलो” जैसी बन गई है। दूसरी ओर, राष्ट्रपति ट्रंप ने हाल ही में घोषणा की कि वे छह लाख चीनी छात्रों को अमेरिका में पढ़ाई करने का अवसर देंगे। यह घोषणा ऐसे समय आई है जब अमेरिकी प्रशासन ने बार-बार चीनी छात्रों और शोधकर्ताओं पर संवेदनशील जानकारी की चोरी और जासूसी के आरोप लगाए हैं। ट्रंप स्वयं पहले कई बार यह कह चुके हैं कि वे चीनी नागरिकों पर वीजा पाबंदी लगाएँगे, लेकिन अब अचानक उनके लिए दरवाजा खोल देना एक साफ साफ यू-टर्न है।
इसके अलावा कई सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि यह कदम अमेरिका की तकनीकी बढ़त को कमजोर कर सकता है। पहले भी चीनी शोधकर्ताओं को संवेदनशील जानकारी चोरी करने के आरोप में पकड़ा गया है। ऐसे में छह लाख छात्रों को एक साथ अनुमति देना न केवल जोखिम भरा है, बल्कि यह चीन के लिए रणनीतिक जीत के बराबर है।
इस फैसले से बुरी तरह नाराज ट्रंप समर्थक
ट्रंप के समर्थक भी इस फैसले से बुरी तरह नाराज हैं। कंज़र्वेटिव कमेंटेटर लॉरा लूमर ने चीनी छात्रों को “सीसीपी जासूस” करार दिया और कहा कि इससे राष्ट्रपति की इमिग्रेशन नीति कमजोर पड़ गई है। वे सोशल मीडिया पर यहां तक लिखती हैं, उन्होंने ट्रंप को इसीलिए वोट नहीं दिया था कि वे अमेरिका में और अधिक चीनी नागरिकों को लाएँ। वे लिखती हैं, “मैंने अपने देश में और ज़्यादा मुसलमानों और चीनी लोगों के आयात के लिए वोट नहीं दिया। माफ़ कीजिए, कम्युनिस्ट देशों और शरिया क़ानूनों से आने वाले ये अप्रवासी, जहाँ बच्चों के साथ बलात्कार को क़ानूनी मान्यता प्राप्त है, अमेरिका को महान नहीं बनाते। कृपया अमेरिका को चीन न बनाएँ। MAGA और ज्यादा अप्रवासी नहीं चाहता।”
सोशल मीडिया पर “MAGA” समर्थकों की नाराजगी साफ़ देखी जा सकती है। Axios की एक रिपोर्ट के अनुसार, ट्रंप के वफादार समर्थक इस फैसले को “अमेरिका फर्स्ट” के नारे के साथ विश्वासघात मान रहे हैं। कई लोग पूछ रहे हैं कि क्या यह सचमुच अमेरिका के लिए फायदेमंद है या फिर यह केवल चीन को खुश करने की रणनीति है। ये विरोध केवल अमेरिका तक सीमित नहीं है। ऑस्ट्रेलिया के पूर्व प्रधानमंत्री एंथनी जॉन टोनी एबॉट ने भी इस नीति पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा कि भारत पर टैरिफ लगाने से अमेरिका अपने ही क्वाड जैसे सुरक्षा गठबंधनों को कमजोर कर रहा है। एबॉट का तर्क है कि भारत को सहयोगी की तरह मजबूत बनाने के बजाय ट्रंप उसे नाराज कर रहे हैं और यह सीधे चीन के पक्ष में जाएगा।
ट्रंप की रणनीति यूएस सहयोगियों को दूर कर रही
इन बयानों से स्पष्ट है कि ट्रंप की रणनीति सहयोगियों को दूर कर रही है और प्रतिस्पर्धियों को अप्रत्यक्ष लाभ पहुँचा रही है। भारत पर टैरिफ से भारत असंतुष्ट होगा, जबकि चीन को छात्रों के रूप में छूट मिलने से वह शिक्षा और शोध के माध्यम से और अधिक ताकतवर बनेगा। अमेरिकी शिक्षा क्षेत्र में भी यह कदम अस्थिरता पैदा करेगा।
कुल मिलाकर, ट्रंप की यह दोहरी चाल अमेरिकी जनता के लिए दोहरी मार बन गई है। भारत पर टैरिफ से महँगाई बढ़ेगी और प्रतिदिन की आवश्यक चीजें महँगी होंगी। चीन के छात्रों को छूट देने से अमेरिकी छात्रों के लिए अवसर सीमित होंगे और सुरक्षा पर खतरे गहराएंगे। दीर्घकाल में चीन की तकनीकी क्षमता और बढ़ सकती है। ट्रंप की राजनीति अब “अमेरिका फर्स्ट” की बजाय “डील फर्स्ट” बन चुकी है, जहां हर नीति का मकसद केवल तत्कालिक सौदा करना और अगले पल यू-टर्न लेना रह गया है। फिलहाल अमेरिका का यही चरित्र दिखाई दे रहा है।
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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी