आस्था में तकनीक का नया अध्याय : केदारनाथ की हेली सेवाओं को इसरो का ‘डिजिटल कवच’


-डॉ. मयंक चतुर्वेदी
बाबा केदारनाथ धाम की यात्रा भारत में आस्था का सबसे बड़ा प्रतीक मानी जाती है। हर साल लाखों श्रद्धालु हिमालय की कठिन चोटियों और रास्तों को पार कर बाबा केदारनाथ के दर्शन के लिए पहुँचते हैं। लेकिन जितनी श्रद्धा इस यात्रा से जुड़ी है, उतना ही बड़ा खतरा भी इसमें छिपा रहता है। अनिश्चित मौसम, भूस्खलन, आपदा की आशंका और अब लगातार बढ़ते हवाई हादसों ने इसे और भी चुनौतीपूर्ण बना दिया है। इस साल 15 जून को जो हादसा हुआ, उसने एक बार फिर सवाल खड़े कर दिए कि आखिर इस पवित्र यात्रा को आधुनिक तकनीक के सहारे कब सुरक्षित बनाया जाएगा?
आर्यन एविएशन का बेल 407 हेलीकॉप्टर केदारनाथ से गुप्तकाशी जा रहा था कि अचानक खराब मौसम और कम दृश्यता की वजह से दुर्घटनाग्रस्त हो गया। इस दुर्घटना में सात लोगों की जान गई, जिनमें एक 23 माह का बच्चा भी शामिल था। यह इस साल का सबसे बड़ा हादसा था और इससे पहले भी केवल पांच सप्ताह के भीतर केदारनाथ क्षेत्र में पांच हेलीकॉप्टर दुर्घटनाएँ हो चुकी थीं। इन हादसों ने हेली सेवाओं की सुरक्षा पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए और सरकार को मजबूर किया कि वह कोई ठोस कदम उठाए।
इसरो की ‘डिजिटल कवच’ योजना
इसी संदर्भ में उत्तराखंड सरकार ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो से मदद ली। इसरो ने ‘डिजिटल कवच’ नामक तकनीकी प्रणाली विकसित करने का आश्वासन दिया है, जिसके जरिए हेली सेवाओं को आधुनिक सुरक्षा दी जाएगी। इसरो अब केदारनाथ घाटी के लिए डिजिटल एलिवेशन मॉडल (डीईएम) तैयार करेगा, जो जीपीएस प्रणाली से जुड़ा होगा। इससे हर हेलीकॉप्टर की लाइव लोकेशन कंट्रोल रूम तक पहुंचती रहेगी। पायलट को भी अपने आसपास के इलाके और मौसम की वास्तविक समय की जानकारी मिलती रहेगी। यानी उड़ान के दौरान पायलट न केवल दिशा और ऊँचाई की जानकारी पाएगा, बल्कि यह भी जान सकेगा कि सामने किस प्रकार की भौगोलिक स्थिति है। इससे दुर्घटना की संभावना काफी हद तक कम हो जाएगी और यात्रियों की सुरक्षा बढ़ जाएगी।
परीक्षण की तैयारियाँ
नागरिक उड्डयन सचिव सचिन कुर्वे ने बताया है कि इसरो की टीम बहुत जल्द उत्तराखंड पहुंचेगी और यहां अपने उपकरणों का परीक्षण करेगी। पहले यह परीक्षण अगस्त में होना था, लेकिन धराली और अन्य क्षेत्रों में आई आपदाओं के कारण इसे टालना पड़ा। अब उम्मीद है कि इस पखवाड़े में विशेषज्ञ दल पहुंचेगा और इस प्रणाली को लागू करने की दिशा में काम आगे बढ़ेगा। यह पहल केवल एक तकनीकी प्रयोग भर नहीं है, बल्कि आस्था और जीवन सुरक्षा के बीच संतुलन बनाने का प्रयास है।
रिकॉर्ड तोड़ भीड़ और दबाव
आंकड़े बताते हैं कि यह कदम क्यों जरूरी हो गया है। 2024 में केदारनाथ धाम में कुल 16.52 लाख श्रद्धालु दर्शन करने पहुँचे थे। बद्रीनाथ और केदारनाथ दोनों धामों में कुल संख्या 30.87 लाख तक पहुँच गई थी। 2025 में तो यह आंकड़ा और भी चौंकाने वाला रहा। इस साल 2 मई को कपाट खुलने से लेकर 18 जून तक केवल 48 दिनों में 11.4 लाख से अधिक लोग बाबा केदार के दर्शन कर चुके थे। पहले सप्ताह में ही 2.26 लाख श्रद्धालु पहुंचे, यानी औसतन प्रतिदिन 22,600 लोग। कई दिनों बाद यह संख्या 55,000 से ऊपर चली गई। कपाट खुलने के पहले दिन ही 30,000 से ज्यादा श्रद्धालुओं ने बाबा का आशीर्वाद लिया, जिनमें 19,196 पुरुष, 10,597 महिलाएं और 361 अन्य शामिल थे। यह संख्या पिछले दशक का सबसे बड़ा रिकॉर्ड था। इतनी भीड़ और इतने खतरनाक इलाके में सुरक्षा इंतजाम पहले से कहीं ज्यादा मजबूत होने चाहिए, लेकिन बार-बार हुए हादसों ने यह साफ कर दिया कि केवल परंपरागत उपायों से काम नहीं चल सकता है।
हेली सेवाओं पर निर्भरता
हेलीकॉप्टर सेवाएँ अब इस यात्रा का अहम हिस्सा बन चुकी हैं। कठिन रास्तों और लंबे पैदल सफर को देखते हुए हजारों लोग हर साल हेली सेवा का विकल्प चुनते हैं। खासतौर पर बुजुर्ग श्रद्धालु और महिलाएं हेलीकॉप्टर सेवा से अपनी यात्रा पूरी करती हैं। लेकिन बार-बार होने वाले हादसों से यात्रियों का विश्वास टूटता जा रहा था। एक श्रद्धालु ने साफ कहा, “हेली सेवा से जाने में टेक्नोलॉजी का दम होगा, तो मन में भरोसा रहेगा। अभी हालात ऐसे हैं कि अचानक मौसम खराब हो जाता है और डर साथ रहने लगता है।” वहीं एक बुजुर्ग यात्री रामसेवक शर्मा ने कहा, “हम जैसे लोगों के लिए यह सेवा जीवनदान है, लेकिन सुरक्षा भी उतनी ही जरूरी है। अगर इसरो जैसी एजेंसी से मदद मिले तो यात्रा निश्चिंत होकर पूरी की जा सकेगी।” यात्रियों की यह आवाज बताती है कि टेक्नोलॉजी अब केवल सुविधा का नाम नहीं है बल्कि श्रद्धालुओं की भावनाओं और जीवन सुरक्षा की गारंटी भी है।
व्यापक दृष्टिकोण की जरूरत
इसरो का यह कदम एक व्यापक दृष्टिकोण का हिस्सा है। सुप्रीम कोर्ट भी बार-बार कह चुका है कि धार्मिक आस्था महत्वपूर्ण है, लेकिन जीवन और पर्यावरण की सुरक्षा उससे पीछे नहीं हो सकती। तकनीक का उद्देश्य ही जीवन को सरल और सुरक्षित बनाना है। जब यह तकनीक आस्था से जुड़ती है तो इसका महत्व और बढ़ जाता है। भारत आज चाँद और मंगल तक पहुँच चुका है, तो यह अपेक्षा स्वाभाविक है कि हिमालय की कठिन चोटियों तक जाने वाले भक्तों को भी आधुनिक विज्ञान का सहारा मिले। इसरो ने श्रद्धालुओं की भावनाओं को समझते हुए उन्हें सुरक्षा का भरोसा देने का जो निर्णय लिया है, वह न केवल सराहनीय है बल्कि एक नई राह दिखाने वाला भी है।
केवल केदारनाथ तक क्यों?
लेकिन सवाल यह है कि क्या यह पहल केवल केदारनाथ तक ही सीमित रहनी चाहिए? देश में कई ऐसे धार्मिक स्थल हैं, जहां हर साल लाखों लोग पहुँचते हैं और जहां पर्यावरणीय खतरा सबसे ज्यादा है। अमरनाथ गुफा, वैष्णो देवी, सबरीमला, तिरुमला, कामाख्या जैसे स्थल पर भीड़ का दबाव लगातार बढ़ रहा है। वहां भी आपदा की आशंका बनी रहती है। यदि इसरो जैसी संस्थाओं की तकनीक को वहां भी लागू किया जाए तो यात्रियों की सुरक्षा और पर्यावरणीय संतुलन दोनों को बेहतर बनाया जा सकता है।
पुरानी चेतावनियों से सबक
केदारनाथ आपदा 2013 अब भी एक चेतावनी की तरह हमारे सामने है, जब बाढ़ और भूस्खलन ने हजारों लोगों की जान ले ली थी और मंदिर क्षेत्र की पारिस्थितिकी को गंभीर क्षति पहुँची थी। उसके बाद भी अनियंत्रित निर्माण और यात्रियों की भीड़ ने खतरे को कम नहीं होने दिया। ऐसे में तकनीक की मदद से भीड़ प्रबंधन, मौसम पूर्वानुमान और आपदा की त्वरित सूचना जैसी व्यवस्थाओं को मजबूत करना ही होगा। दरअसल, आस्था और पर्यावरण को विरोधी नहीं, बल्कि सहयोगी बनाकर देखना आज की आवश्यकता है। यदि तकनीक का सही इस्तेमाल हो, तो भक्त अपनी यात्रा पूरे विश्वास और सुविधा के साथ पूरी कर सकते हैं और प्रकृति भी अपनी मौलिकता को बनाए रख सकती है। केदारनाथ में इसरो का ‘डिजिटल कवच’ इसी गंभीर सोच की शुरुआत है।
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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी