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जिस मंदिर में जहर बन गया था अमृत, वहां आज भी गूंज रहे कृष्ण के भजन, चित्तौड़ व भक्ति का पर्याय बनी मीरा

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जिस मंदिर में जहर बन गया था अमृत, वहां आज भी गूंज रहे कृष्ण के भजन, चित्तौड़ व भक्ति का पर्याय बनी मीरा


जिस मंदिर में जहर बन गया था अमृत, वहां आज भी गूंज रहे कृष्ण के भजन, चित्तौड़ व भक्ति का पर्याय बनी मीरा


चित्तौड़गढ़, 16 अगस्त (हि.स.)। भगवान कृष्ण की प्रेम दीवानी मीरा का भक्ति और साधना का उत्कर्ष काल चित्तौड़गढ़ में रहा है। चित्तौड़ केवल अपने दुर्ग के वैभव या सतियों के जौहर से ही नहीं अपितु भक्तिमति मीरा से भी जाना जाता है। चित्तौड़ दुर्ग में स्थित उसी मीरा मंदिर से उनकी भक्ति की गंगा निकली, जिसने आज तक सम्पूर्ण देश—यहां तक कि पूरी दुनिया—को आकृष्ट किया हुआ है। इसीलिए यह ऐतिहासिक चित्तौड़ और मीरा एक-दूसरे के पर्याय माने जाते हैं। चित्तौड़ की बात हो तो मीरा की छवि उभर आती है, मीरा का जिक्र होते ही इस दुर्ग का अभिमान जाग उठता है। मीराबाई नारी शक्ति, प्रेम और अध्यात्म की वह अनुपम मूरत हैं, जिन्होंने दुनिया को सिखाया कि प्रेम में समर्पण और भक्ति का मार्ग किसी भी सांसारिक वैभव या अवरुद्ध प्रपंच से बड़ा होता है।

ऐतिहासिक चित्तौड़ दुर्ग स्थित मीरा मंदिर में स्थापित मीरा बाई की प्रतिमा यहां आने वाले श्रद्धालुओं को आकर्षित करती है। यह वही मंदिर हैं, जहां भगवान कृष्ण की अनन्य मीरा को मारने के लिए विष का प्याला भेजा था। इसी मंदिर में यह हलाहल भी भक्ति से अमृत में बदल गया। जिस मंदिर में विष ग्रहण किया था, वहां भगवान कृष्ण के भजन गूंजते हैं।

रिटायर्ड प्रोफेसर एवं मीरा स्मृति संस्थान के पूर्व अध्यक्ष एसएन समदानी ने बताया कि समाज में स्त्री को केवल बहू या बेटी मानने वाले दौर में मीरा ने 36 कौमों के लिए प्रेम-भक्ति की अलख जगाई। उनका जीवन एक अनूठा विद्रोह और समर्पण का दर्पण बन गया। वे रिश्ते में महाराणा प्रताप की ताई थी। राजसी वंश की पहचान के बावजूद, मीरा की पहचान उनके प्रेम और भक्ति से ही बनी। समदानी ने बताया कि जब परिवार और समाज में उनका निर्वाह दूभर हुआ, तो दुखी होकर मीरा ने संवत 1534 के आसपास चित्तौड़गढ़ व मेवाड़ छोड़ दिया। वे टोडा भीम, पुष्कर होते हुए अंत में द्वारिका जा पहुंची। यही वह भूमि थी, जहां द्वारिका के माधुर्य में बह कर, भक्ति रस में लीन रह कर, उन्होंने जीवन का अंतिम साध्य प्राप्त किया। कहते हैं, मीरा अपने प्रभु में लीन होकर ही समाधिस्थ हुईं। मीरा के बिना भारत की सांस्कृतिक विरासत अधूरी है।

समदानी ने बताया कि युवावस्था में सन् 1516 में मीरा का विवाह मेवाड़ के प्रसिद्ध शासक महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से हुआ। वे मेवाड़ की राजवधू बन चित्तौड़ आई। लेकिन उनका मन तो मेड़ता से लाई कृष्ण आराधना में ही रमा रहा। मीरा ने वैभव, ऐश्वर्य और लोकाचार की बजाय प्रभु भक्ति को चुना। राज परिवार ने कई बार उन्हें राजसी बंधनों में बांधना चाहा, पर मीरा ने दृढ़ता से मना कर दिया। विवाह के मात्र 5 वर्ष बाद ही पति भोजराज का असमय निधन हो गया। तब कुल मर्यादा के नाम पर मीरा को सती होने का आदेश दिया गया। इसे उन्होंने स्पष्ट अस्वीकार कर दिया। मीरा को बार-बार अपमान, प्रताड़ना और षड्यंत्रों का सामना करना पड़ा। इतिहास में वर्णित है कि मीरा को विष देकर मारने का षड्यंत्र रचा गया, लेकिन उन्होंने उसे भगवान के चरणामृत जान कर पी लिया और उन्हें कोई हानि नहीं पहुंची।

प्रतिवर्ष होता है मीरा महोत्सव

समदानी ने बताया कि चित्तौड़ में मीरा मंदिर के अलावा महल भी है। लेकिन यहां राष्ट्रीय स्मारक और संग्रहालय की आवश्यकता है। मीरा स्मृति संस्थान 1990 से न केवल शोधकार्य किए बल्कि मीरा महोत्सव द्वारा उनके आदर्शों को जन-जन तक पहुंचाया। इन 35 वर्षो में संस्थान ने कई शोध प्रकाशित किए। अब तक चित्तौड़ ही नहीं कई राज्यों में 19 राष्ट्रीय सेमिनार करवाए हैं। यहां हर साल मीरा महोत्सव भी होता है।

बचपन के भक्ति संस्कार

मीरा मेड़ता के राठौड़ राज परिवार राव दूदाजी की पोती थी। पाली के कुड़की गांव में दूदाजी के चौथे पुत्र रतनसिंह के घर संवत् 1498 में मीराबाई का जन्म हुआ था। मीरा बाई को बचपन से ही श्रीकृष्ण भक्ति के संस्कार मिले थे। उनके दादा राव दूदाजी और पिता रतन सिंह दोनों मेड़ता के प्रतिष्ठित शासक थे। बाल्यकाल से ही मीरा का मन सांसारिक लीलाओं में नहीं, अपितु भगवान कृष्ण के चरणों में रम गया था। किंवदंती है कि बाल्यावस्था में ही वे स्वयं को श्रीकृष्ण के प्रति समर्पित मान बैठी थीं। स्वप्न में कृष्ण से अपना विवाह देख चुकी थी।

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हिन्दुस्थान समाचार / अखिल