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समय पर बुवाई और ज़ीरो टिलेज से किसान बढ़ा सकते हैं गेहूं की पैदावार: आइसार्क निदेशक

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समय पर बुवाई और ज़ीरो टिलेज से किसान बढ़ा सकते हैं गेहूं की पैदावार: आइसार्क निदेशक


समय पर बुवाई और ज़ीरो टिलेज से किसान बढ़ा सकते हैं गेहूं की पैदावार: आइसार्क निदेशक


धान–गेहूं के समझदारी भरे प्रबंधन पर जोर

वाराणसी, 11 नवंबर (हि.स.)। उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा गेहूं उत्पादक राज्य है, जो भारत के कुल उत्पादन का एक-तिहाई से अधिक हिस्सा देता है। राज्य के लाखों किसानों की आजीविका गेहूं की खेती पर निर्भर है, लेकिन हर साल एक ‘नजरों से ओझल’ समस्या देर से बुवाई किसानों की पैदावार घटा रही है।

अंतर्राष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्थान दक्षिण एशिया क्षेत्रीय केंद्र (आइसार्क), वाराणसी के निदेशक डॉ. सुधांशु सिंह ने बताया कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में यह समस्या सबसे अधिक है, जहां लगभग 60 प्रतिशत गेहूं की बुवाई देर से होती है। उन्होंने कहा कि धान की कटाई में देरी का सीधा असर गेहूं की बुवाई पर पड़ता है। 1 नवंबर के बाद धान की कटाई में हर एक दिन की देरी से गेहूं की बुवाई औसतन 0.8 दिन पीछे चली जाती है।

डॉ. सिंह ने कहा कि गेहूं की बुवाई का सबसे उपयुक्त समय 1 से 20 नवंबर के बीच है। इस अवधि में बोई गई फसल को सर्दी का पूरा लाभ मिलता है, जिससे अधिक फुटाव और दानों का बेहतर विकास होता है। वहीं 20 नवंबर के बाद की बुवाई से प्रति हेक्टेयर प्रतिदिन 40–50 किलोग्राम तक पैदावार घट सकती है। उन्होंने कहा कि सिर्फ समय पर बुवाई सुनिश्चित करके ही किसान बिना किसी अतिरिक्त लागत के लगभग 69 प्रतिशत तक अधिक उपज प्राप्त कर सकते हैं। वास्तव में कृषि में ‘समय ही सबसे बड़ा निवेश’ है।

आइसार्क निदेशक ने बताया कि संस्थान उत्तर प्रदेश में विश्व बैंक समर्थित यूपीएग्रीज परियोजना के तहत कई नवाचारों पर काम कर रहा है ताकि किसानों को समय पर बुवाई में मदद मिले।

धान की सीधी बुआई (डीएसआर): इस पद्धति से धान की कटाई 7–10 दिन पहले हो जाती है, साथ ही पानी, मजदूरी और डीज़ल की बचत होती है।

मशीन से कटाई और अवशेष प्रबंधन: इससे खेत 3–4 दिन पहले खाली हो जाते हैं और पराली जलाने की जरूरत नहीं पड़ती।

ज़ीरो टिलेज गेहूं: खेत को जोतने की आवश्यकता नहीं होती, जिससे समय की बचत होती है, मिट्टी की नमी और स्वास्थ्य दोनों बने रहते हैं। मजदूरी व ईंधन की भी बचत होती है।

उन्नत किस्में: छोटी और मध्यम अवधि की धान की किस्में तथा ताप-सहनशील गेहूं की किस्में अपनाने से किसानों को बेहतर पैदावार और कम लागत का लाभ मिलता है। डॉ. सिंह ने कहा कि बदलते जलवायु परिदृश्य में समय पर बुवाई पहले से अधिक जरूरी हो गई है। देर से बोई गई फसल को गर्मी का झटका लगता है, जिससे दानों का भराव प्रभावित होता है। वहीं समय पर बुवाई से फसल के विकास चरण ठंडी सर्दियों में पूरे होते हैं, जिससे उच्च उपज और बेहतर दाने की गुणवत्ता सुनिश्चित होती है।

उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश के किसान देश की खाद्य सुरक्षा के सच्चे रक्षक हैं। अगर वे समय पर बुवाई और नई तकनीकों को अपनाएं, तो न केवल उत्पादन बढ़ा सकते हैं बल्कि मिट्टी की उर्वरता और अपनी आय दोनों को सुरक्षित रख सकते हैं। वर्तमान में राज्य में लगभग 97 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में गेहूं की बुवाई होती है, जिससे 320–340 लाख टन उत्पादन मिलता है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि नई तकनीकों और समयबद्ध खेती के जरिए आने वाले वर्षों में यह उत्पादन 450–500 लाख टन तक बढ़ाया जा सकता है।

हिन्दुस्थान समाचार / श्रीधर त्रिपाठी