पितरों के निमित्त श्रद्धा से किया गया कर्म ही श्राद्ध है




उदय कुमार सिंह
नई दिल्ली, 6 सितंबर (हि.स.)। शास्त्राें का वचन है- श्रद्धया इदं श्राद्धं अर्थातः पितरों के निमित्त श्रद्धा से किया गया कर्म ही श्राद्ध है। हिंदू पंचांग के अनुसार इस वर्ष भाद्रपद महीने की पूर्णिमा तिथि शनिवार की अर्धरात्रि के बाद 01 बजकर 41 मिनट पर शुरू होगी। इसका समापन रविवार (7 सितंबर) को रात 11 बजकर 38 मिनट पर होगा। पंचांग के अनुसार इस साल पितृ पक्ष की शुरुआत भी इसी दिन से हाे रही है जिसकी समाप्ति 21 सितंबर को होगी।
श्राद्ध के दाैरान 14 दिनों तक पितृगणों (पितरों) के निमित्त श्राद्ध एवं तर्पण किया जाता है। हालांकि जानकारी के अभाव में अधिकांश लोग इसे उचित रीति से नहीं करते जो दोषपूर्ण है क्योंकि शास्त्रानुसार “पितरो वाक्यमिच्छन्ति भावमिच्छन्ति देवता:” अर्थात देवता भाव से प्रसन्न होते हैं और पितृगण शुद्ध एव उचित विधि से किए गए कर्म से।
इस बार सात सितंबर के महालय “श्राद्ध पक्ष” की शुरुआत चंद्र ग्रहण से हो रही है जिसके कारण पितृपक्ष करने वाले श्रद्धालू वंशजों को सूतक काल का पालन करना आवश्यक होगा और ग्रहण अवधि में श्राद्धकर्म नहीं किए जाएंगे।
पितृदोष क्या है?
पित्तरों से सम्बन्धित दाेष पितृदोष कहलाता है। यहां पितृ का अर्थ पिता नहीं वरन् पूर्वज होता है। ये वह पूर्वज होते हैं जो मुक्ति प्राप्त ना होने के कारण पितृलोक में रहते हैं । श्राद्ध या अन्य धार्मिक कर्मकाण्ड न किए जाने के कारण या अन्य किसी कारणवश अगर वे रूष्ट हो जाएं तो उसे पितृ दोष कहते है। गीता के अनुसार जिस प्रकार स्नान के पश्चात हम नवीन वस्त्र धारण करते हैं उसी प्रकार यह आत्मा भी मृत्यु के बाद एक देह को छोड़कर नवीन देह धारण करती है। हमारे पित्तरों को भी सामान्य मनुष्यों की तरह सुख-दुःख, मोह-ममता और भूख-प्यास आदि का अनुभव होता है। यदि पितृ योनि में गए व्यक्ति के लिए उसके परिवार के लोग श्राद्ध कर्म तथा श्रद्धा का भाव नहीं रखते है तो वह पितर अपने प्रियजनों से नाराज हो जाते हैं।
पितृ दोष होने पर व्यक्ति को अपने जीवन में तमाम तरह की परेशानियां उठानी पड़ती है जिनमें घर के सदस्यों का बीमार रहना, मानसिक परेशानी, सन्तान का ना होना, पारिवारिक सदस्यों में वैचारिक मतभेद होना, जीविकोपार्जन में अस्थिरता या पर्याप्त आमदनी होने पर भी धन का ना रुकना, प्रयास करने पर भी मनाेवांछित फल का ना मिलना, आकस्मिक दुर्घटना की आशंका और वृद्धावस्था में बहुत दुःख प्राप्त होना आदि शामिल हैं।
आजकल बहुत से लोगों की कुण्डली में कालसर्प योग (दोष) भी देखा जाता है जाे पितृ दोष के कारण ही होता है।
श्राद्ध और उनका महत्व
मत्स्य पुराण में त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते कहा गया है अर्थात मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं जबकि यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से जाना जाता है। उधर भविष्यपुराण में कुल बारह श्राद्धाें का वर्णन है।
नित्य श्राद्ध- प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वदेव को स्थापित नहीं किया जाता और केवल जल से भी इसे सम्पन्न किया जा सकता है।
नैमित्तिक श्राद्ध- किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है। किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आते हैं। इसमें भी विश्वदेवों को स्थापित नहीं किया जाता है।
काम्य श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।
वृद्धि श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश, विवाहादि प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता के लिए जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है।
पार्वण श्राद्ध- पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्या या अन्य पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वदेवसहित होता है।
सपिण्डन श्राद्ध- सपिण्डन शब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डन है।
गोष्ठी श्राद्ध- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।
शुद्धयर्थ श्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं उसे शुद्धयर्थ श्राद्ध कहते हैं। शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।
कर्माग श्राद्ध- कर्माग का सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं उन्हें कर्माग श्राद्ध कहते हैं।
दैविक श्राद्ध - यह देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करने और उनके निमित्त किया जाने वाला श्राद्ध है।
यात्रार्थ श्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थ श्राद्ध कहलाता है। इसे घृत श्राद्ध भी कहा जाता है।
पुष्ट्यर्थ श्राद्ध- शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थ श्राद्ध कहलाता है।
धर्म सिन्धु के अनुसार श्राद्ध के 96 अवसर बतलाए गए हैं
एक वर्ष की अमावास्याएं' (12), पुणादि तिथियां (4), 'मन्वादि तिथियां (14), संक्रान्तियां (12), वैधृति योग (12), व्यतिपात योग (12), पितृपक्ष (15), अष्टका श्राद्ध (5), अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु: (5)। इन तिथियों में पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पितृ-कर्म का विधान है।
पुराणोक्त पद्धति से निम्नांकित कर्म किए जाते हैं :-
एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, नाग बलि कर्म, नारायण बलि कर्म, त्रिपिण्डी श्राद्ध और महालय श्राद्ध पक्ष के दाैरान विभिन्न संप्रदायों में विभिन्न प्रचलित परिपाटियां चली आ रही हैं। अपनी कुल-परंपरा के अनुसार ही श्राद्ध कर्म करना चाहिए।
श्राद्ध के लिए सर्वमान्य स्थान गयाजी
श्राद्ध कर्मो के लिए बिहार स्थित गयाजी का नाम बड़ी प्रमुखता और आदर से लिया जाता है। गयाजी में भी दो स्थान श्राद्ध-तर्पण के लिए बहुत प्रसिद्द हैं जाे बोध गया और विष्णुपद मन्दिर हैं। विष्णुपद मंदिर वह स्थान जहां माना जाता है जहां स्वयं भगवान विष्णु के चरण उपस्थित हैं। दूसरा सबसे प्रमुख स्थान फल्गु नदी है। ऐसा माना जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने माता सीता के साथ स्वयं इस स्थान पर आकर अपने स्वर्गीय पिता राजा दशरथ का पिंड दान किया था। इस स्थान का नाम ‘गयाजी’ रखा गया क्योंकि भगवान विष्णु ने यहीं की धरती पर असुर गयासुर का वध किया था।
श्राद्ध कर्म कब, क्यों और कैसे करें?
भारतीय शास्त्रों में ऐसी मान्यता है कि पितृगण पितृपक्ष में पृथ्वी पर आते हैं और 15 दिनों तक पृथ्वी पर रहने के बाद अपने लोक को लौट जाते हैं। पितृपक्ष के दौरान पितृ अपने परिजनों के आस-पास रहते हैं इसलिए इन दिनों कोई भी ऐसा काम नहीं करें जिससे पितृगण नाराज हों। पितरों को खुश रखने के लिए पितृ पक्ष में इन बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
⦁ पितृ पक्ष के दौरान ब्राह्मण, जामाता, भांजा, मामा, गुरु और नाती को भोजन कराना चाहिए। इससे पितृगण अत्यंत प्रसन्न होते हैं।
⦁ ब्राह्मणों को भोजन करवाते समय भोजन का पात्र दोनों हाथों से पकड़कर लाना चाहिए अन्यथा भोजन का अंश राक्षस ग्रहण कर लेते हैं जिससे ब्राह्मणों द्वारा अन्न ग्रहण करने के बावजूद पितृगण भोजन का अंश ग्रहण नहीं करते हैं।
⦁ पितृ पक्ष में द्वार पर आने वाले किसी भी जीव-जंतु को मारना नहीं चाहिए बल्कि उनके लिए उचित भोजन का प्रबंध करना चाहिए।
⦁ हर दिन भोजन बनने के बाद एक हिस्सा निकालकर गाय, श्वान, कौआ अथवा बिल्ली को देना चाहिए। मान्यता है कि इन्हें दिया गया भोजन सीधे पितरों को प्राप्त होता है।
⦁ शाम के समय घर के द्वार पर एक दीपक जलाकर पितृगणों का ध्यान करना चाहिए।
⦁ हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार जिस तिथि को जिसके पूर्वज गमन करते हैं उसी तिथि को उनका श्राद्ध करना चाहिए।
⦁ इस पक्ष में जो लोग अपने पितरों को जल देते हैं और उनकी मृत्यु तिथि पर श्राद्ध करते हैं उनके समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं।
⦁ जिन लोगों को अपने परिजनों की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं होती उनके लिए पितृ पक्ष में कुछ विशेष तिथियां भी निर्धारित की गई हैं जिस दिन वे पितरों के निमित्त श्राद्ध कर सकते हैं।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा: - इस तिथि को नाना-नानी के श्राद्ध के लिए सही बताया गया है। यदि नाना-नानी के परिवार में कोई श्राद्ध करने वाला न हो और उनकी मृत्यु तिथि याद न हो तो आप इस दिन उनका श्राद्ध कर सकते हैं।
पंचमी :- जिनकी मृत्यु अविवाहित स्थिति में हुई हो उनका श्राद्ध इस तिथि को किया जाना चाहिए।
नवमी:- सौभाग्यवती यानी पति के रहते ही जिनकी मृत्यु हो गई हो उन स्त्रियों का श्राद्ध नवमी को किया जाता है। यह तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम मानी गई है इसलिए इसे मातृ नवमी भी कहते हैं।
एकादशी और द्वादशी:- एकादशी में वैष्णव संन्यासी का श्राद्ध करते हैं अर्थात् इस तिथि को उन लोगों का श्राद्ध किए जाने का विधान है जिन्होंने संन्यास लिया हो।
त्रयोदशी :- बच्चों का श्राद्ध कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को करने के लिए कहा गया है।
चतुर्दशी:- इस तिथि में अस्त्र-शस्त्र, आत्महत्या, विष और दुर्घटना यानी जिनकी अकाल मृत्यु हुई हो उनका श्राद्ध किया जाता है।
सर्वपितृमोक्ष अमावस्या:- किसी कारणवश यदि काेई पितृपक्ष की अन्य तिथियों पर पितरों का श्राद्ध करने से चूक जाता हैं या किसी काे पितरों की तिथि याद नहीं है तो इस तिथि पर सभी पितरों का श्राद्ध किया जा सकता है। शास्त्रों के अनुसार इस दिन श्राद्ध करने से कुल के सभी पितरों का श्राद्ध हो जाता है।
श्राद्ध कर्म का विशेष मंत्र
श्राद्ध कर्म करने वालों को यह मंत्र तीन बार अवश्य पढ़ना चाहिए। यह मंत्र ब्रह्माजी द्वारा रचित आयु, आरोग्य, धन और लक्ष्मी प्रदान करने वाला अमृतमंत्र है।
देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिश्च एव च।
नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्युत ।।
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हिन्दुस्थान समाचार / उदय कुमार सिंह