छत्तीसगढ़ के बलरामपुर में बीहड़ पहाड़ियों के बीच गांव बचवार में अब हर सुबह बजती है शिक्षा की घंटी




-शिक्षकों के जजबे को सलाम, सीमित संसाधनों में गढ़ रहे बच्चों का भविष्य
बलरामपुर, 04 अगस्त (हि.स.)। छत्तीसगढ़ के बलरामपुर जिले के पिछड़े, जनजातीय और पहाड़ी अंचलों में शिक्षा की रोशनी पहुंचाने का जमीनी स्तर पर प्रयास अब सार्थक रूप ले रहा है। विद्यालयों के समुचित युक्तियुक्तकरण से प्रदेश के सबसे सुदूरवर्ती अंचलों तक शिक्षा की अलख जगाई जा रही है। इसका जीवंत उदाहरण है बलरामपुर विकासखंड का अति दुर्गम गांव बचवार, जहां शिक्षा अब केवल एक अधिकार नहीं बल्कि एक नए परिवर्तन की जीवंत कहानी बन चुकी है। बलरामपुर विकासखंड मुख्यालय से बचवार तक न सड़कें हैं, न परिवहन। फिर यहां शिक्षा की लौ तेजी से जगमगाने लगी है।
यहां तक पहुंचने के लिए 8 से 10 किलोमीटर लंबी पहाड़ी पगडंडी पार करनी होती है, जो घने जंगलों और वीरान पहाड़ियों के बीच से होकर गुजरती है। लेकिन इसी दुर्गम मार्ग से उम्मीद की एक नई किरण जगी है और इसका श्रेय उन कर्तव्यनिष्ठ शिक्षकों को जाता है, जिन्होंने अपने पद को नहीं, बल्कि सेवा को अपना धर्म माना। भौगोलिक दुर्गमता के कारण गांव में आज भी विकास की मूलभूत सुविधाएं नहीं पहुंचीं, लेकिन शिक्षकों का संकल्प पहले पहुंच गया। सीमित संसाधन और एकांतता के बावजूद यहां के शिक्षक न केवल बच्चों को पढ़ा रहे हैं, बल्कि शिक्षा को गांव की चेतना में शामिल भी किया है।
युक्तियुक्तकरण नीति ने विद्यालयों के व्यवस्थापन और संसाधनों के कुशल उपयोग का मार्ग तो प्रशस्त किया, लेकिन बचवार जैसे गांवों में इस नीति को जीवंत करने वाले असली नायक वे शिक्षक हैं, जिन्होंने आदिवासी बच्चों के भविष्य को उजास देने के लिए अपने जीवन की सरलता छोड़ दी, वे शिक्षक जो जंगलों की नीरवता में हर सुबह शिक्षा की घंटी बजाते हैं।
नए प्रधानपाठक जब पहली बार गांव पहुंचे, तो उनके साथ था एक बैग, कुछ किताबें, स्टेशनरी और रोजमर्रा का सामान, जिसे वे कई किलोमीटर पैदल चढ़ाई चढ़कर लाए थे। रास्ता कोई आसान नहीं था पथरीली पगडंडियां, जंगल की नीरवता और पहाड़ियों की खामोशी। लेकिन उनके हौसले किसी ऊंचाई से कम नहीं थे। उनके आने के कुछ ही दिनों में बच्चों की उपस्थिति बढ़ी, समुदाय में संवाद बढ़ा और शिक्षा को लेकर उत्साह की एक नई लहर दिखाई देने लगी है। गांव के बुज़ुर्गों और अभिभावकों ने भी महसूस किया कि स्कूल अब सिर्फ एक भवन नहीं, एक उम्मीद बन चुका है।
प्रधानपाठक श्याम शाय पैकरा बताते हैं कि जब युक्तियुक्तकरण योजना के तहत बचवार पहुंचे, तो यह सिर्फ उनकी पदस्थापना नहीं थी, बल्कि एक उम्मीद का संचार था, एक भरोसे की बहाली थी। वे अब गांव में ही निवास करते हैं और वहीं रहकर बच्चों को पढ़ाते हैं। वे बताते हैं कि युक्तियुक्तकरण के बाद जब मेरी यहां पोस्टिंग हुई, तब मुझे अंदाज़ा नहीं था कि यह जगह मुझे इतना अपनापन देगी। लेकिन गांववालों ने जिस आत्मीयता से मेरा स्वागत किया, उससे लगा जैसे मैं अपने ही लोगों के बीच हूं। आज मैं इन्हीं के साथ रहता हूं, इन्हीं के साथ खाता हूं और हर सुबह बच्चों को पढ़ाने की ऊर्जा इसी स्नेह से मिलती है।
ग्रामीण लखन राम बताते हैं कि जो वर्षों से इस गांव की स्थिति के साक्षी रहे हैं, अब स्कूल में बच्चों की उपस्थिति देखकर भावुक हो जाते हैं। वे कहते हैं कि पहले हम सोचते थे कि हमारे गांव में कभी शिक्षक टिक नहीं पाएंगे। इतनी दूर पहाड़ चढ़कर कौन आएगा? लेकिन अब हालात बदल गए हैं। हमारे मास्टर साहब यहीं रहते हैं, बच्चों को रोज पढ़ाते हैं। अब हमारे बच्चे भी घर आकर पढ़ाई की बातें करते हैं, किताबें खोलते हैं। पहले जहां बच्चे जंगल और पशु चराने जाते थे, अब वे स्कूल जाते हैं। हमें लगता है कि अब हमारा गांव भी आगे बढ़ेगा।
पहाड़ पर लगती है भविष्य के उम्मीद की एक कक्षाबचवार गांव में वर्षों से सेवा दे रहे पंकज एक्का न सिर्फ शिक्षक हैं, बल्कि इस बदलाव के चश्मदीद भी हैं। जब वे पहली बार गांव पहुंचे थे, तब न कोई स्कूल भवन था, न सुविधा सिर्फ पहाड़ों के बीच बसे कुछ जिज्ञासु बच्चे और एक उम्मीद थी, जिसे वे अपने साथ लाए थे। वे बताते हैं कि शुरुआत में हम एक सामान्य ग्रामीण घर में स्कूल चलाते थे। बच्चों के पास बैठने के लिए जमीन थी और पढ़ने के लिए सिर्फ जज्बा। यहां तक आना आसान नहीं होता बारिश में पगडंडियां फिसलन भरी हो जाती थीं, गर्मियों में धूप तपती थी, लेकिन बच्चों के चेहरे की मुस्कान और सीखने की ललक ने सारी थकान भुला दी।
बचवार में शिक्षा व्यवस्था की बुनियाद महज सरकारी आदेशों से नहीं, बल्कि ग्रामीणों के सहयोग और प्रशासनिक संकल्प से रखी गई। जब जिला प्रशासन ने पहल की और स्कूल भवन की मंज़ूरी दी, तो गांव वालों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि इच्छाशक्ति से हर मुश्किल राह आसान हो जाती है। वैकल्पिक भवन निर्माण की सारी सामग्री टिन की चादरें, सीमेंट की बोरियां और लोहे के एंगल ग्रामीणों ने खुद अपने कंधों पर लादकर 8 से 10 किलोमीटर की कठिन चढ़ाई पार करते हुए गांव तक पहुंचाई। अब प्रधानपाठक की नियुक्ति के बाद विभिन्न शैक्षणिक गतिविधियों के साथ बच्चों को रोचक ढंग से पढ़ाया जा रहा है, समूह गतिविधियां, खेल और व्यावहारिक ज्ञान के माध्यम से शिक्षा को जीवंत बनाया गया है और सबसे बड़ी बात गांव के हर माता-पिता की आंखों में अब उम्मीद की चमक है।
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हिन्दुस्थान समाचार / विष्णु पांडेय