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जंगल-जमीन की रक्षा में प्राण न्योछावर करने वाले आदिवासी योद्धा लाल सिंह मुंडा

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जंगल-जमीन की रक्षा में प्राण न्योछावर करने वाले आदिवासी योद्धा लाल सिंह मुंडा


जंगल-जमीन की रक्षा में प्राण न्योछावर करने वाले आदिवासी योद्धा लाल सिंह मुंडा


पश्चिमी सिंहभूम, 1 नवंबर (हि.स.)। पश्चिम सिंहभूम जिला में जंगल-जमीन की लड़ाई में अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले शहीद लाल सिंह मुंडा आज भी आदिवासी समाज के लिए प्रेरणा बने हुए हैं। बंदगांव प्रखंड के टोकाद गांव में स्थित उनकी समाधि लोगों को उनके संघर्ष और बलिदान की याद दिलाती है।

दरअसल, आज ही के दिन, 01 नवंबर 1984 को बंदगांव के बाजारटांड़ में उनकी हत्या कर दी गई थी। वे सासनदिरी (मकबरा या दफ़न स्थल) की उस जमीन पर मंदिर निर्माण का विरोध कर रहे थे, जिसे वे अपने पूर्वजों की समाधि भूमि मानते थे। लाल सिंह मुंडा का कहना था कि यह भूमि धार्मिक ढांचे के लिए नहीं, बल्कि आदिवासी अस्मिता का प्रतीक स्थल है।

लाल सिंह मुंडा का जन्म 28 मई 1946 को बंदगांव प्रखंड के टिमडा गांव में हुआ था। बचपन से ही मेधावी रहे लाल सिंह ने संत जेवियर स्कूल, लुपुंगगुटु, चाईबासा से मैट्रिक और सेंट जेवियर कॉलेज, रांची से स्नातक की पढ़ाई पूरी की थी। 1973 में उन्होंने जोसफीन बारला से विवाह किया। कुछ वर्षों तक वे जमशेदपुर में अस्थायी शिक्षक के रूप में कार्यरत रहे, लेकिन टीबी से पीड़ित होने और आर्थिक कठिनाइयों के कारण गांव लौट आए।

गांव लौटने के बाद वे तेजी से आदिवासी हक की लड़ाई में जुड़ गए। वर्ष 1978 में शुरू हुए जंगल आंदोलन में उन्होंने मछुवा गागराई सहित अन्य साथियों के साथ मिलकर वन विभाग की ओर से खुंटकट्टी जमीन से आदिवासियों को बेदखल करने के खिलाफ मोर्चा खोला। नकटी हाट मैदान से शुरू हुआ यह आंदोलन धीरे-धीरे व्यापक जनआंदोलन बन गया। इसी दौर में उनकी मुलाकात झारखंड आंदोलन के प्रणेता मेरो मुंडा और जॉन से हुई, जिन्होंने उन्हें राजनीतिक चेतना के मार्ग पर प्रेरित किया।

गुवा गोलीकांड (8 सितंबर 1980) के बाद आंदोलनकारियों पर पुलिस कार्रवाई तेज हो गई थी। लाल सिंह मुंडा भी इस दमन चक्र के शिकार बने। पुलिस ने कई बार उनके घर पर छापेमारी की और अंततः उनका घर कुर्क कर लिया गया। परिवार को बेघर होना पड़ा। गिरफ्तारी के बाद उन्हें चाईबासा जेल भेजा गया, जहां उन्होंने साथियों के साथ 84 घंटे की भूख हड़ताल की। तबीयत बिगड़ने पर उन्हें बक्सर, गया और हजारीबाग जेल में स्थानांतरित किया गया। जेल से रिहा होने के बाद भी उन्होंने आंदोलन की राह नहीं छोड़ी।

1984 में जब सासनदिरी की जमीन पर मंदिर निर्माण की कोशिशें तेज हुईं, तो लाल सिंह मुंडा ने इसका कड़ा विरोध किया। उन्हें बार-बार धमकियां दी गईं, लेकिन वे झुके नहीं। 1 नवंबर 1984 की सुबह जब वे अपनी बीमार बहन से मिलने मिलने के बाद लुम्बै से अपने घर लौट रहे थे, तब अपराधियों ने रास्ते में घेरकर उन पर गोलियां बरसा दीं। मौके पर ही उनकी मौत हो गई।

टोकाद गांव में उनकी समाधि स्थल आदिवासी स्वाभिमान का प्रतीक बन चुकी है। हर साल लोग वहां एकत्र होकर उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं। आज भी बड़ी संख्या में लोग उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं। उन्हें नमन कर रहे हैं।

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हिन्दुस्थान समाचार / गोविंद पाठक