जब एक राष्ट्रपति पद छोड़कर प्रधानमंत्री बनना चाहते थे
नई दिल्ली 16 दिसंबर (हि.स.)। बहुत कम लोगों को पता होगा कि एक बार देश के एक राष्ट्रपति पद छोड़कर प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार थे। इसके लिए वामपंथी मोर्चे ने जो व्यूह रचना बनाई थी, उसे एक ऐसे पूर्व प्रधानमंत्री ने ही विफल कर दिया था जिन्होंने वाम मोर्चे के समर्थन से ही अपनी सरकार चलाई थी।
यह वाकया है वर्ष 1999 का, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की पहली सरकार अविश्वास प्रस्ताव पर एक वोट से गिर गयी थी। तब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के लिए लामबंदी कर रहे थे। वहीं यह योजना असफल हो जाने पर, अंदर ही अंदर तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नारायणन को आम सहमति से प्रधानमंत्री बनने के लिए उम्मीदवार के तौर पर तैयार कर लिया था।
दरअसल हरकिशन सिंह सुरजीत ने वाजपेयी सरकार को गिराने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का सब्ज़बाग दिखा कर माेहरा बनाने की कोशिश की थी, लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने सोनिया गांधी को बता दिया था कि सुरजीत के साथी उन्हें आखिरी क्षणों में धोखा देंगे। सोनिया गांधी ने गुजराल की बात पर विश्वास करके अपने रुख को कड़ा कर लिया, जिससे यह योजना अंजाम तक नहीं पहुंच पायी और दोबारा आम चुनाव हुए जिसमें बड़ी जीत हासिल कर वाजपेयी तीसरी बार स्थायी सरकार बनाने में सफल रहे।
यह दिलचस्प किस्सा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के मीडिया सलाहकार रहे वरिष्ठ पत्रकार अशोक टंडन की नयी पुस्तक अटल संस्मरण में दर्ज है, जिसका विमाेचन बुधवार शाम को देश की राजधानी में केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी के हाथों होना है। अशोक टंडन करीब छह साल तक प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार रहे।
पुस्तक में इस घटना के बारे में लिखा कि 17 अप्रैल, 1999 को अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली 13 महीने पुरानी राजग सरकार लोकसभा में मात्र एक वोट से विश्वास मत हार गई। प्रधानमंत्री वाजपेयी ने तत्काल राष्ट्रपति के.आर. नारायणन को अपना इस्तीफा सौंपा, जिन्होंने उन्हें तब तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने रहने को कहा, जब तक कोई वैकल्पिक व्यवस्था न बन जाए।
अशोक टंडन लिखते हैं कि इस दौरान राजनीतिक गलियारों में साजिशों, धोखाधड़ी, चालबाजियों की कई कहानियाँ सामने आने लगीं। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री गुजराल ने अपनी आत्मकथा ‘मैटर्स ऑफ डिस्क्रेशन’ में हुए खुलासे का जिक्र करते हुए लिखा कि पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु, माकपा नेता हरकिशन सिंह सुरजीत के ‘छुपे रुस्तम’ थे, जिन्हें वे प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे। वाजपेयी सरकार गिरने के बाद ‘गतिरोध’ उत्पन्न होने की स्थिति में राजग के अलावा किसी भी वैकल्पिक गठबंधन के प्रधानमंत्री पद के लिए उन्होंने ज्योति बसु को तैयार रखा था। गुजराल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि 20 अप्रैल, 1999 को उन्होंने सोनिया गांधी को चेताया था कि वाम मोर्चा के ‘मित्र’ उन्हें आखिरी क्षणों में धोखा देंगे, उन्होंने सोनिया से साफ कहा—अगर आपको लगता है कि सुरजीत आपके पीछे पूरी तरह से खड़े हैं, तो आप बहुत भोली हैं। दरअसल, उनका असली दाँव है ज्योति बसु—जिसे सुरजीत ने यह यकीन दिलाया है कि अगर गतिरोध हुआ, तो वही प्रधानमंत्री पद के लिए चुने जाएँगे।
वाजपेयी सरकार गिरने से पहले ही सुरजीत ने सोनिया गांधी को 288 सांसदों की सूची दिखा दी थी, जो राजग के खिलाफ एक वैकल्पिक सरकार का समर्थन करेंगे। सोनिया इस झाँसे में आ गईं कि वह अगली प्रधानमंत्री बन सकती हैं। इसलिए सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति नारायणन के रुख को समझने के लिए अपने भरोसेमंद नेता अर्जुन सिंह और कुछ अन्य लोगों को राष्ट्रपति भवन भेजा था। 21 अप्रैल, 1999 को सोनिया गांधी ने स्वयं राष्ट्रपति से मुलाकात की और सरकार बनाने का दावा पेश किया और उन्होंने वह चर्चित बयान दिया था—“हमारे पास 272 हैं, और भी आ रहे हैं,” लेकिन सुरजीत की स्क्रिप्ट में लिखा था—अगले ही दिन मुलायम सिंह यादव, रेवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (आर.एस.पी.) और फॉरवर्ड ब्लॉक के कुल 28 सांसदों ने सोनिया गांधी के नाम पर वीटो लगा दिया और ज्योति बसु का नाम आगे बढ़ाया।
सोनिया गांधी इस घटनाक्रम से स्तब्ध और बेहद निराश हो गईं। और जैसा कि गुजराल ने लिखा, सोनिया गांधी ने “सीधे-सीधे सच बोलने का फैसला किया” और यह ऐलान कर दिया कि वह अब किसी तीसरे माेर्चे के उम्मीदवार को समर्थन नहीं देंगी। वरना क्या पता, नाटक का एक और दृश्य देखने को मिलता। ज्योति बसु खुद प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर देते और राष्ट्रपति के.आर. नारायणन का नाम इस पद के लिए प्रस्तावित कर देते। गुजराल के अनुसार सोनिया गांधी को पहले गलतफहमी में डालना कि उन्हें सरकार बनाने का मौका मिलेगा, फिर जानबूझकर मुलायम सिंह यादव को उनका विरोध करने के लिए उकसाना—यह सब सुरजीत और वामपंथी नेताओं की पहले से तय रणनीति का हिस्सा था, जिसका मकसद ही था एक राजनीतिक गतिरोध पैदा करना और बाद में बसु को प्रधानमंत्री बनवाना।
अशोक टंडन लिखते हैं कि गुजराल इस मामले में पूरी तरह सही थे। हालाँकि ज्योति बसु ही एकमात्र ‘छुपे रुस्तम’ नहीं थे। अगर आखिरी वक्त पर माकपा की केंद्रीय समिति ने ‘ऐतिहासिक भूल’ को दोहराने का फैसला किया होता, तो एक और नाम बैकअप के रूप में तैयार था। पुस्तक में खुलासा किया गया है कि हरकिशन सिंह सुरजीत का अंतिम और सबसे बड़ा ट्रंप कार्ड थे—राष्ट्रपति के.आर. नारायणन। इस राजनीतिक पैंतरेबाजी की ओर इशारा राष्ट्रपति नारायणन के सचिव गोपाल गांधी ने तब किया था, जब मैं अनौपचारिक भेंट के लिए मिला था। इस अनौपचारिक मुलाकात में गोपाल गांधी मेरी मंशा तुरंत समझ गए थे। मैंने उनसे पूछा, “क्या सर्वसम्मत नाम ज्योति बसु है? क्या माकपा मान जाएगी?” उन्होंने मुसकराते हुए जवाब दिया, “नहीं।” तो मैंने पूछा, “फिर कौन?” उनका संकेत था तो फिर शायद के.आर. नारायणन ही।
टंडन लिखते हैं कि इन घटनाक्रमों से कांग्रेस एवं सोनिया गांधी को जल्द ही यह अहसास हो गया कि माकपा के दो प्रमुख नेता—हरकिशन सिंह सुरजीत और ज्योति बसु—ने उन्हें वाजपेयी सरकार गिराने के लिए मोहरा बनाया था और अब वे तीसरे मोर्चे को फिर से जिंदा करने की साजिश रच रहे हैं। उन्होंने हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे नेताओं की चालें पहचान लीं, जो 1996 में तीसरे मोर्चे की सरकार के सूत्रधार थे। सोनिया गांधी अब पूरी तरह दृढ़ निश्चय कर चुकी थीं। सोनिया का स्पष्ट संदेश था—“इस बार कांग्रेस-नेतृत्व वाली सरकार नहीं तो कोई और भी मंजूर नहीं।” उनकी इस कठोर मुद्रा के चलते राष्ट्रपति नारायणन के पास कोई और विकल्प नहीं बचा और उन्होंने लोकसभा भंग कर दी, जिससे देश को एक और मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ा। इस तरह अटल बिहारी वाजपेयी कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने रहे और जल्द ही कारगिल युद्ध की विजय के नायक के रूप में देश भर में उनके नेतृत्व की धूम मच गई और वे तीसरी बार पुनः प्रधानमंत्री बने और पूरे पाँच वर्ष तक सफलतापूर्वक मिली-जुली सरकार चलाई।
---------------
हिन्दुस्थान समाचार / सचिन बुधौलिया
