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अरावली पर्वत श्रृंखला के संरक्षण के लिए बढ़ा विरोध, 21 दिसंबर को होगा उपवास

अरावली पर्वत श्रृंखला के संरक्षण के लिए देशभर में विरोध प्रदर्शन तेज हो गए हैं। सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के खिलाफ, पर्यावरणविदों और समुदायों ने सोशल मीडिया पर अभियान चलाया है। 21 दिसंबर को एक प्रतीकात्मक उपवास का आयोजन किया जाएगा, जिसमें प्रदर्शनकारी निचली पहाड़ियों को भी खनन से बचाने की मांग करेंगे। जानें इस आंदोलन के पीछे का कारण और अरावली का पारिस्थितिक महत्व।
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अरावली पर्वत श्रृंखला के संरक्षण के लिए बढ़ा विरोध, 21 दिसंबर को होगा उपवास

विरोध का नया दौर


नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट के 20 नवंबर के निर्णय के एक महीने बाद, अरावली पर्वत श्रृंखला के संरक्षण को लेकर देशभर में विरोध प्रदर्शन तेज हो गए हैं। इस फैसले में अरावली पहाड़ियों की परिभाषा को सीमित करते हुए केवल 100 मीटर से अधिक ऊंची पहाड़ियों को कानूनी सुरक्षा देने का उल्लेख किया गया था। पर्यावरणविदों का मानना है कि इससे अरावली क्षेत्र के बड़े हिस्से को खनन के लिए खोलने का रास्ता साफ हो गया है। इसी के विरोध में सोशल मीडिया पर #SaveAravalli और #SaveAravallisSaveAQI जैसे हैशटैग ट्रेंड कर रहे हैं.


समर्थन में जुटे लोग

इस अभियान में ग्रामीण समुदाय, पर्यावरण कार्यकर्ता, छात्र और राजनेता शामिल हो रहे हैं। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सहित कई नेताओं ने अपनी प्रोफाइल तस्वीरें बदलकर समर्थन जताया है। वायरल पोस्ट और अपीलों के माध्यम से अरावली को होने वाले संभावित पारिस्थितिक नुकसान के प्रति चिंता व्यक्त की जा रही है.


प्रतीकात्मक उपवास का ऐलान

ऑनलाइन विरोध अब जमीनी आंदोलन में बदल रहा है। पर्यावरणविदों और ग्रामीण संगठनों ने 21 दिसंबर को सुबह 10 बजे से एक दिन के प्रतीकात्मक उपवास का आयोजन करने का निर्णय लिया है। यह विरोध हरियाणा के भिवानी जिले की तोशाम पहाड़ी पर केंद्रित रहेगा, जो अरावली का सबसे उत्तरी हिस्सा है। प्रदर्शनकारियों की मांग है कि ऊंचाई आधारित नियम को वापस लिया जाए ताकि निचली पहाड़ियों को भी खनन से बचाया जा सके.


अरावली का पारिस्थितिक महत्व

करीब दो अरब साल पुरानी अरावली पर्वत श्रृंखला लगभग 692 किलोमीटर लंबी है और दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात से होकर गुजरती है। यह थार रेगिस्तान से आने वाली रेत को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसके अलावा, यह भूजल पुनर्भरण, वायु प्रदूषण नियंत्रण और जैव विविधता संरक्षण में भी योगदान करती है। अरावली के जंगल लाखों लोगों के लिए जल, चारा, औषधीय जड़ी-बूटियों और आजीविका का प्रमुख स्रोत हैं.


परिभाषा पर उठे सवाल

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की समिति की सिफारिश को सुप्रीम कोर्ट की मंजूरी मिलने के बाद, फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के आंतरिक आकलन में यह सामने आया है कि इस परिभाषा से अरावली का 90 प्रतिशत से अधिक हिस्सा कानूनी सुरक्षा से बाहर हो सकता है। राजस्थान में 12,081 पहाड़ियों में से केवल 1,048 ही इस मानक पर खरी उतरती हैं.


राजनीतिक और सामाजिक समर्थन

अरावली विरासत जन अभियान को राजनीतिक समर्थन भी मिल रहा है। प्रतिनिधिमंडलों ने दिल्ली में सांसदों से मुलाकात कर संसदीय चर्चा की मांग की है। आदिवासी और किसान संगठनों का कहना है कि यह फैसला उनकी आजीविका और सांस्कृतिक पहचान पर सीधा असर डालेगा.


एक्टिविस्ट्स की चेतावनी

पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि संकीर्ण परिभाषा से मरुस्थलीकरण बढ़ सकता है और जल स्रोतों व वन्यजीव आवासों को अपूरणीय क्षति पहुंच सकती है। उनकी मांग है कि पूरी अरावली पर्वत श्रृंखला को महत्वपूर्ण पारिस्थितिक क्षेत्र घोषित कर सभी प्रकार के खनन पर पूर्ण रोक लगाई जाए.