आर्थिक असमानता: एक गंभीर समस्या या मौजूदा आर्थिक स्थिति का परिणाम?
असमानता का विश्लेषण
गैर-बराबरी पर विचार करते समय पहला प्रश्न यह उठता है कि क्या यह एक स्वतंत्र समस्या है या मौजूदा आर्थिक स्थिति का संकेत है? यदि उत्पादन के साधनों पर कुछ व्यक्तियों या समूहों का नियंत्रण है, तो यह कैसे संभव है कि उत्पादन से उत्पन्न धन का अधिकांश हिस्सा उनकी जेब में न जाए? क्या यह तर्क किया जा सकता है कि सरकारों के हस्तक्षेप से ऐसा किया जा सकता है?
हाल ही में प्रकाशित दो रिपोर्टों ने देशों के भीतर और विभिन्न देशों के बीच आर्थिक असमानता को फिर से उजागर किया है। जी-20 शिखर सम्मेलन के अध्यक्ष दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरिल रामफोसा ने इस विषय पर विशेषज्ञों की एक समिति का गठन किया, जिसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिग्लिट्ज ने की। समिति ने यह तक कहा कि वर्तमान में दुनिया एक 'असमानता आपातकाल' का सामना कर रही है।
समिति ने बताया कि दुनिया के सबसे धनी लोग नए उत्पन्न धन के बड़े हिस्से पर नियंत्रण बनाए हुए हैं और इसे अपने उत्तराधिकारियों को सौंपने की तैयारी कर रहे हैं। इससे आर्थिक अभिजात वर्ग और सामान्य समाज के बीच की खाई और बढ़ती जा रही है। स्टिग्लिट्ज समिति की रिपोर्ट में कहा गया है: 'असमानता आज की सबसे बड़ी चिंताओं में से एक है, जो अर्थव्यवस्था, समाज, राजनीति और पर्यावरण में कई समस्याएं उत्पन्न कर रही है।'
इस महीने पेरिस स्थित इनइक्वलिटी लैब ने वैश्विक विषमता की स्थिति पर एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें कहा गया है कि 'असमानता लंबे समय से वैश्विक अर्थव्यवस्था का एक प्रमुख पहलू रही है। लेकिन 2025 तक यह उस स्तर पर पहुंच जाएगी, जहां इस पर तुरंत ध्यान देना आवश्यक है। वैश्वीकरण और आर्थिक विकास के लाभ असमान रूप से एक छोटे समूह के पास संकेंद्रित हो गए हैं, जबकि अधिकांश जनसंख्या के लिए आजीविका जुटाना भी कठिन हो गया है।'
इनइक्वलिटी लैब की रिपोर्ट में कहा गया है कि 'जो विभाजन उत्पन्न हुआ है, वह अपरिहार्य नहीं है। यह राजनीतिक और संस्थागत चयन का परिणाम है।'
स्टिग्लिट्ज समिति ने भी कहा कि 'असमानता कोई अपरिहार्य स्थिति नहीं है। यह चुनी गई नीतियों का परिणाम है। ये नीतियां समाज की नैतिक दृष्टि और आर्थिक व्यवस्था को दर्शाती हैं।'
इसका मतलब है कि दोनों रिपोर्टों के विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि विभिन्न देशों में अपनाई गई नीतियों के कारण असमानता इतनी बढ़ गई है। चूंकि यह मानव-निर्मित है, इसलिए इसे नियंत्रित किया जा सकता है। कैसे? दोनों रिपोर्टों में इस संबंध में सुझाव दिए गए हैं, जिन पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है:
स्टिग्लिट्ज समिति के अनुसार:
- बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अत्यधिक धनाढ्य व्यक्तियों पर उच्च कर लगाया जाए।
- कॉर्पोरेट एकाधिकार को कमजोर करने के लिए बाजार में प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने वाली नीतियां लागू की जाएं।
- शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सार्वजनिक सेवाओं में बड़े पैमाने पर निवेश किया जाए।
- स्टिग्लिट्ज समिति ने असमानता पर एक अंतरराष्ट्रीय समिति (International Panel on Inequality- IPI) बनाने का सुझाव दिया है, जो जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) की तर्ज पर होगी। इससे लगातार असमानता का प्रामाणिक आकलन और विश्लेषण उपलब्ध हो सकेगा, जिसका उपयोग सरकारें नीति-निर्माण के लिए कर सकेंगी।
इनइक्वलिटी लैब की रिपोर्ट में कहा गया है कि धन और संसाधनों के पुनर्वितरण की नीतियां अतीत में असमानता को कम करने में प्रभावी रही हैं। यदि इन नीतियों को सही तरीके से तैयार किया जाए और प्रभावी ढंग से लागू किया जाए, तो विषमता को कम किया जा सकता है। इस संदर्भ में स्कैंडिनेवियाई देशों, यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि के अनुभव का उल्लेख किया गया है। रिपोर्ट में यह भी स्वीकार किया गया है कि 1990 के बाद लगभग सभी देशों में कर प्रणाली में बदलाव आया है। वहां अधिकांश जनसंख्या के लिए प्रभावी आयकर दरें बढ़ी हैं, जबकि अरबपतियों के लिए ये दरें तेजी से गिरी हैं।
हालांकि, रिपोर्ट इस सवाल पर कुछ नहीं कहती कि लगभग साढ़े तीन दशकों तक प्रगतिशील कर प्रणाली अपनाने के बाद कई देशों में कर व्यवस्था प्रतिगामी क्यों हो गई? जब पुरानी कर व्यवस्था से समाज अपेक्षाकृत समान और खुशहाल बने थे, तो फिर उनकी दिशा क्यों पलट दी गई? आज के हालात में ये सबसे महत्वपूर्ण सवाल हैं, क्योंकि इनका संबंध संबंधित देशों की राजनीतिक व्यवस्था से है। बिना इनका उत्तर ढूंढे 'असमानता आपातकाल' का समाधान शायद ही ढूंढा जा सके।
हालांकि, इस बहस में गए बिना, इनइक्वलिटी लैब की रिपोर्ट को तैयार करने में शामिल लगभग 200 अर्थशास्त्रियों ने सुझाव दिया है कि अब फिर से प्रगतिशील कर व्यवस्था अपनाई जानी चाहिए। सरल भाषा में इसका अर्थ है कि जो जितना धनी है, उस पर उतना अधिक कर लगाया जाए। ऐसी व्यवस्था लागू कर सार्वजनिक सेवाओं में निवेश के लिए आवश्यक धन जुटाया जा सकता है। इससे सभी के लिए विकास के बेहतर अवसर उपलब्ध होंगे। ऐसा होने पर सभी की नजर में व्यवस्था की साख और वैधता मजबूत होती है। जबकि ऐसा न होने पर जनसंख्या के एक बड़े हिस्से की नजर में व्यवस्था का औचित्य संदिग्ध हो जाता है।
इनइक्वलिटी लैब ने चार सुझाव दिए हैं:
- असमानता की निगरानी करना (यानी स्टिग्लिट्ज समिति के सुझाव को दोहराया है कि आईपीपीसी की तर्ज पर एक आईपीआई का गठन किया जाए।)
- प्रगतिशील कर व्यवस्था और सामाजिक हस्तांतरण के जरिए आय का पुनर्वितरण किया जाए।
- शिक्षा और स्वास्थ्य में अधिक सार्वजनिक निवेश हो।
- नई वैश्विक मुद्रा प्रणाली अपनाई जाए।
इसमें जो आखिरी बिंदु है, वह नया है। संभवतः इसकी पृष्ठभूमि कुछ समय पहले इनइक्विलिटी लैब की ही आई एक अन्य रिपोर्ट से बनी है। उस रिपोर्ट में कहा गया कि उपनिवेशवाद के दौर में उपनिवेशों से बड़े पैमाने पर धन का ट्रांसफर यूरोप के औपनिवेशिक देशों में हुआ। दूसरे विश्व युद्ध के बाद डॉलर के अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के रूप में स्थापित होने के कारण ग्लोबल साउथ से धनी देशों (खासकर अमेरिका) को वैल्यू ट्रांसफर जारी रहा। यह विभिन्न देशों के बीच असमानता का बड़ा कारण है। तो अब इनइक्विलिटी लैब ने एक नई वैश्विक मुद्रा प्रणाली लागू करने की वकालत की है।
रिपोर्ट के अनुसार, विकासशील देशों को डॉलर में कर्ज लेना पड़ता है। चूंकि उनकी मुद्रा कमजोर होती है, इसलिए उनके लिए कर्ज चुकाना महंगा पड़ता है। दूसरी ओर, अमीर देशों को कम ब्याज दर और मुद्रा के मूल्य की स्थिरता का लाभ मिलता है। इसलिए ऐसी वैश्विक मुद्रा प्रणाली अपनाने की आवश्यकता है, जिसमें केवल डॉलर नहीं, बल्कि कई मुद्राएं (जैसे यूरो, युआन, या एक नई अंतरराष्ट्रीय मुद्रा इकाई) मिलकर वैश्विक लेन-देन का आधार बनें। रिपोर्ट के अनुसार, ऐसा होने पर अंतरराष्ट्रीय असमानता घटेगी।
अच्छी बात यह है कि इस दिशा में दुनिया में ना केवल पहल शुरू हो गई है, बल्कि डॉलर के वर्चस्व से मुक्त होकर अब अनेक देश अपना कारोबार कर रहे हैं। उधर ब्रिक्स+ ने ऋण एवं वित्त की अलग व्यवस्था खड़ी करने की दिशा में ठोस प्रयास किए हैं। साथ ही चीन ग्लोबल साउथ के देशों के लिए कर्ज के एक बड़े स्रोत के रूप में उभरा है, जो संबंधित देश की मुद्रा और अपनी मुद्रा (युवान) के बीच विनिमय की व्यवस्था कायम करते हुए आगे बढ़ रहा है।
इस परिघटना से आने वाले वर्षों में अंतरराष्ट्रीय विषमता घटने की ठोस आस जगी है। लेकिन देशों के अंदर गैर-बराबरी कैसे कम हो, यह सवाल विकराल रूप में हम सबके सामने मौजूद है। इसलिए इस पर गंभीर चर्चा की आवश्यकता है। इस सिलसिले में मूल प्रश्न है कि
– विषमता का कारण क्या है?
– क्या यह कर व्यवस्था का परिणाम भर है, जैसा कि स्टिग्लिट्ज समिति और इनइक्विलिटी लैब की रिपोर्टों में कहा गया है?
– या इसकी वजहें कहीं और हैं?
बेशक, दूसरे विश्व युद्ध के समय और उसके बाद सोशल डेमोक्रेसी के बढ़े प्रचलन के कारण प्रगतिशील कर व्यवस्था अस्तित्व में आई थी। उसके बेहतर नतीजे सामने आए। इससे सरकारों के पास सामाजिक एवं मानव विकास में निवेश के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हुए, वहीं अर्थव्यवस्था में सरकार के हस्तक्षेप एवं मोनोपॉली विरोधी कानूनों के कारण धन संकेद्रण पर एक हद तक रोक लगी। इनक्विलिटी लैब के संस्थापक थॉमस पिकेटी या जोसेफ स्टिग्लिट्ज जैसे अर्थशास्त्री उसी दौर को पूंजीवाद के स्वर्ण युग के रूप में याद करते हैं और उस तरफ लौटने की सलाह दे रहे हैं।
हालांकि, यह अतीतमोह से अधिक कुछ नहीं है। सोशल डेमोक्रेसी अपने-आप में उस समय की विश्व परिस्थितियों का परिणाम थी। उसकी पृष्ठभूमि में सोवियत संघ की सफलताएं और उस कारण तमाम देशों के श्रमिक वर्ग में कम्युनिज्म के प्रति पैदा हुआ आकर्षण था। यानी जो प्रगतिशील नीतियां लागू हुईं, वह साम्यवाद के भय का परिणाम थीं। 1990 के बाद जब यह खतरा हट गया (या इसके हट जाने का अहसास बना), तब पूंजीवादी देशों के शासक वर्गों ने उन नीतियों को अलविदा कह दिया। उसी का नतीजा आज का सूरत-ए-हाल है।
वास्तव में, गैर-बराबरी पर गंभीरता से विचार करते समय पहला प्रश्न यह उठता है कि क्या यह अपने-आप में एक समस्या है या मौजूदा आर्थिक स्थिति का लक्षण है? मुद्दा यह है कि यदि उत्पादन के साधनों पर कुछ व्यक्तियों या समूहों का नियंत्रण है, तो यह कैसे संभव है कि उत्पादन से उत्पन्न धन का सबसे बड़ा हिस्सा उनकी जेब में न जाए? क्या यह तर्क किया जा सकता है कि सरकारों के हस्तक्षेप से ऐसा किया जा सकता है? लेकिन प्रश्न है कि क्या सरकारें वास्तव में विभिन्न सामाजिक हितों के बीच समन्वय बनाने वाली स्वतंत्र एजेंसी हैं (या अब रह गई हैं)? या फिर, आर्थिक मोनोपॉली के दौर में जो राजनीतिक-अर्थव्यवस्था बनी है, उसमें सरकारें खुलेआम मोनोपॉली पूंजी की हित साधक एजेंसी बन गई हैं?
ब्रिटिश अर्थशास्त्री माइकल रॉबर्ट्स ने अपने एक ताजा विश्लेषण में लिखा है- 'पिछले अध्ययनों में मैंने पाया कि व्यक्तिगत संपत्ति की उच्च असमानता आय की असमानता से निकटता से जुड़ी हुई है। मैंने पाया कि किसी अर्थव्यवस्था में व्यक्तिगत संपत्ति की असमानता जितनी अधिक होगी, आय की असमानता भी उतनी ही अधिक होने की संभावना रहेगी। अधिक संपत्ति अधिक आय को जन्म देती है। एक बहुत छोटा अभिजात वर्ग उत्पादन और वित्त के साधनों का मालिक है। इसी का परिणाम है कि वे संपत्ति और आय का बड़ा हिस्सा हड़प लेते हैं।'
रॉबर्ट्स की ये पंक्तियां भी गौरतलब हैं: 'संपत्ति का संकेद्रण वास्तव में उत्पादक पूंजी, उत्पादन और वित्त के साधनों के स्वामित्व से संबंधित है। यही बड़ी पूंजी निवेश, रोजगार और वित्त संबंधी निर्णयों को नियंत्रित करती है। यही वह असमानता है, जो पूंजीवाद के संचालन के लिए मायने रखती है। दरअसल, संपत्ति की असमानता उत्पादन और वित्त के साधनों के कुछ हाथों में संकेंद्रण से पैदा होती है। (उत्पादन के साधनों पर) स्वामित्व की यह संरचना अछूती रहे, तो टैक्स बढ़ाने की सोच पर आधारित पुनर्वितरण की कोई भी नीति संपत्ति और आय के वितरण को ठोस रूप से बदलने में हमेशा विफल रहेगी।'
ऐसी बुनियादी बातों को चर्चा में लाने पर अक्सर कहा जाता है कि ये आदर्शवादी बातें हैं, जो कम्युनिस्ट या मार्क्सवादी अक्सर कहते हैं। इनका कोई व्यावहारिक मतलब नहीं है। सोवियत संघ और उसके साथी देशों का उल्लेख कर यह भी कहा जाता है कि ये नीतियां नाकाम हो गई हैं। लेकिन जिस मुकाम पर हम हैं, क्या अब प्रगतिशील कर व्यवस्था लागू करने की बातें भी यूटोपियन नहीं हो चुकी हैं? आखिर दुनिया में कौन-सा वो देश है, जहां की मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था इन नीतियों को अपनाने को तैयार हो? क्या जी-7 के देश इसके लिए तैयार हैं? क्या भारत में ऐसी स्थिति है?
तो फिलहाल बात समस्या को समझने की है। हमारे सामने दोनों तरह के अनुभव हैं। उन देशों का अनुभव है, जहां उत्पादन के साधनों पर सार्वजनिक नियंत्रण कायम किया गया और उन देशों का भी जहां उसके दबाव में सोशल डेमोक्रेसी को अपनाया गया। इस सिलसिले में फिलहाल प्रासंगिक चीन का अनुभव भी है, जहां एक अलग ढंग का प्रयोग हुआ है। चीन में माओवादी दौर में उत्पादन के साधनों पर पूरा पब्लिक स्वामित्व कायम किया गया, तो तब की वस्तुगत परिस्थितियों के बीच अधिकतम संभव समता वहां हासिल की गई थी। लेकिन 'सुधार और खुलेपन' के दौर में उत्पादन के साधनों को सीमित रूप से निजी स्वामित्व में दिया गया। इस दौर में वहां गैर-बराबरी तेजी से बढ़ी। लेकिन चूंकि राजसत्ता कम्युनिस्ट पार्टी के हाथ में है, तो शी जिनपिंग के काल में वहां 'साझा समृद्धि' की नीति के तहत विषमता को नियंत्रित करने के प्रयास किए गए हैं।
इनइक्विलिटी लैब की रिपोर्ट में चीन के बारे में कहा गया है- 'चीन में ऊंची विषमता बनी हुई है, लेकिन दशकों तक तेज गति से इजाफे के बाद अब इसमें ठहराव आ गया है... वर्षों तक खाई चौड़ी होने के बाद अब ऐसा लगता है कि गैर-बराबरी में वृद्धि एक बिंदु पर आकर ठहर गई है।' दरअसल, कुछ अन्य रिपोर्टों में इसमें गिरावट आने के संकेत भी दर्ज किए गए हैं।
तो सबक क्या है? असल सवाल राजसत्ता के चरित्र और उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण का है। चीन में भूमि और वित्त कभी निजी हाथों में नहीं दिया गया। उद्योग और निर्माण जैसे क्षेत्रों में भी राज्य ने अपनी निर्णायक भूमिका बनाए रखी। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की अर्थव्यवस्था में बड़ी भूमिका बनी रही। इस बीच उत्पादक शक्तियों के विकास और समाज को समृद्ध बनाने के लिए प्रयोग के तौर पर उत्पादन प्रक्रिया का सीमित निजीकरण किया गया। उसके अच्छे और बुरे दोनों परिणाम सामने आए। चूंकि राज्य पर निजी पूंजी अपना प्रभाव नहीं बना पाई है, तो वहां यह संभव है कि विषमता घटाने के नियोजित प्रयास किए जा सकें। इसमें कितनी कामयाबी मिलेगी, यह आगे चलकर तय होगा।
हालांकि, मुद्दा यह नहीं है कि चीन- या किसी दूसरे देश- में क्या हुआ और क्या नहीं। मुद्दा यह है कि क्या उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व वाली व्यवस्थाओं में सचमुच विषमता से निजात पाई जा सकती है?
