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इमरजेंसी की 50वीं वर्षगांठ: राजनीतिक विभाजन और बौद्धिक पतन का संकेत

इमरजेंसी की 50वीं वर्षगांठ पर राजनीतिक विभाजन और बौद्धिक विमर्श ने एक नई दिशा ली है। कुछ लोग इमरजेंसी का समर्थन कर रहे हैं, जबकि अन्य इसे अलोकतांत्रिक मानते हैं। इस लेख में हम इमरजेंसी के दौरान नागरिकों के अधिकारों के हनन और राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाओं का विश्लेषण करेंगे। क्या यह बौद्धिक पतन का संकेत है? जानें इस महत्वपूर्ण विषय पर और अधिक।
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इमरजेंसी की 50वीं वर्षगांठ: राजनीतिक विभाजन और बौद्धिक पतन का संकेत

इमरजेंसी का राजनीतिक संदर्भ

पिछले कुछ दिनों में इमरजेंसी के 50 साल पूरे होने के अवसर पर सत्ता की राजनीति ने कई उदाहरण पेश किए हैं। इस दौरान कुछ लोग इमरजेंसी का समर्थन करते नजर आए, जो मुख्यतः नरेंद्र मोदी सरकार के विरोध में खड़े होने के लिए किया गया। चूंकि मोदी सरकार ने इस अवसर पर 'संविधान हत्या दिवस' मनाने का निर्णय लिया, इसलिए विरोधी पक्ष ने इमरजेंसी के पक्ष में अपनी आवाज उठाई। यह बौद्धिक पतन का एक गंभीर उदाहरण है। हालांकि, यह कहना जल्दबाजी होगी कि देश का बौद्धिक स्तर कितना गिर सकता है। यह संयोग है कि 25 जून को महान लेखक जॉर्ज ऑरवेल का जन्मदिन भी है, जिन्होंने अधिनायकवाद और फासीवाद का विरोध किया।


राजनीतिक विभाजन और इमरजेंसी का समर्थन

भारत में राजनीतिक विभाजन इतना गहरा हो गया है कि यदि भाजपा या मोदी सरकार इमरजेंसी की आलोचना करती है, तो एक समूह ऐसा खड़ा हो जाता है जो इमरजेंसी का समर्थन करता है। इस बार यह समूह पूरी ताकत में दिखाई दिया। इमरजेंसी की प्रशंसा में कई बौद्धिक तर्क प्रस्तुत किए गए। पहले जो लोग इमरजेंसी का विरोध करते थे, वे अब चुप्पी साधे हुए हैं या बहुत ही कम आवाज में आलोचना कर रहे हैं। कांग्रेस पार्टी, जो पहले इस दिन पर खामोश रहती थी, अब इमरजेंसी के समर्थन में सामने आई है।


इमरजेंसी का काला अध्याय

इमरजेंसी के दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ। प्रेस की स्वतंत्रता समाप्त कर दी गई, और कई पत्रकारों को दंडित किया गया। आम नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी छीन लिया गया। इस दौरान, विपक्षी नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया। इमरजेंसी के काले अध्याय में सुप्रीम कोर्ट का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जहां एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ल केस में नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन को स्वीकार किया गया।


बौद्धिक विमर्श और इमरजेंसी का पुनर्मूल्यांकन

इमरजेंसी की 50वीं वर्षगांठ पर कुछ लोग यह तर्क दे रहे थे कि यह अलोकतांत्रिक तो थी, लेकिन असंवैधानिक नहीं। क्या यह सिर्फ संविधान के अनुच्छेद 352 के उपयोग का मामला था? दिल्ली विश्वविद्यालय के एक विद्वान ने कहा कि इमरजेंसी का विरोध केवल पूंजीपतियों और जमींदारों ने किया। यह विचार स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान का अपमान है। ऐसे बौद्धिक लोग अपने स्वार्थ के लिए इतिहास को विकृत कर रहे हैं।