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उत्तराखंड में मसाण पूजा: परंपरा और आस्था का अनूठा संगम

उत्तराखंड की मसाण पूजा एक अनूठी परंपरा है, जो पहाड़ी लोगों के जीवन में गहराई से जुड़ी हुई है। यह पूजा न केवल आस्था का प्रतीक है, बल्कि एक डर भी है जो पीढ़ियों से लोगों के दिलों में बसा हुआ है। जानिए मसाण के बारे में, उनकी पहचान, पूजा की अनिवार्यता और इस परंपरा के पीछे की कहानियाँ। क्या यह आस्था है या अंधविश्वास? इस लेख में हम इस परंपरा की गहराई में जाएंगे।
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उत्तराखंड में मसाण पूजा: परंपरा और आस्था का अनूठा संगम

उत्तराखंड में मसाण पूजा

उत्तराखंड में मसाण पूजा: 'कितना भी रहो परदेस में, देवता की पूजा के लिए पहाड़ आना पड़ेगा', यह वाक्य उन लोगों के लिए है जो पहाड़ों में निवास करते हैं। इस वाक्य में एक ऐसा डर छिपा है जिसे बहुत कम लोग समझते हैं। उत्तराखंड के पहाड़ों में मान्यताओं और लोककथाओं का गहरा प्रभाव है। भले ही पहाड़ी लोग काम या पढ़ाई के लिए मैदानों में चले जाएं, लेकिन एक बात उनके जीवन से कभी नहीं मिटती - 'देवता और मसाण की पूजा'।


स्थानीय लोग अक्सर मजाक में कहते हैं, 'कितना भी रहो परदेस में, मसाण की पूजा के लिए पहाड़ आना ही पड़ेगा।' लेकिन यह केवल मजाक नहीं है, बल्कि यह उस डर और आस्था का प्रतीक है जो पीढ़ियों से लोगों के दिलों में बसी हुई है।


मसाण क्या है?

मसाण, जिन्हें श्मशान के देवता या भूत भी कहा जाता है, पहाड़ों में लोगों की सोच और जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। लोककथाओं के अनुसार, ये प्रेत-जैसी शक्तियां नदियों के संगम, जंगलों और श्मशान स्थलों पर निवास करती हैं। लोगों का मानना है कि अगर इनका हिस्सा न चुकाया जाए तो ये भारी अनिष्ट कर सकते हैं। यही कारण है कि गर्मियों की छुट्टियों में लोग गांव लौटकर जागर, पूजा और देवताओं की आराधना करना नहीं भूलते।


मसाण का डर और पहाड़ों की हकीकत

उत्तराखंड के गांवों में मसाण का नाम सुनते ही लोग सहम जाते हैं। माना जाता है कि ये आत्माएं श्मशान और नदियों के किनारे रहती हैं और किसी भी व्यक्ति पर अचानक सवार हो सकती हैं। कई परिवारों का दावा है कि उनके पूर्वज भी इस त्रासदी का सामना कर चुके हैं।


गंगनाथ ज्यू और मसाण की कथा

स्थानीय मान्यता के अनुसार, प्रसिद्ध देवता गंगनाथ ज्यू को भी 13 साल की उम्र में काली घाट के मसाण ने पकड़ लिया था। दोनों के बीच सात दिन और सात रात तक भयंकर युद्ध चला। अंत में गोल ज्यू की मदद से गंगनाथ ज्यू ने मसाण को साधा। तभी से गंगनाथ ज्यू की पूजा के साथ गोल ज्यू का नाम लेना अनिवार्य माना जाता है।


आस्था और अनिवार्य पूजा

कहा जाता है कि चाहे पहाड़ी लोग मैदानों में बस गए हों, लेकिन मसाण की पूजा करना कभी नहीं छोड़ते। लोग मानते हैं कि पूजा और जागर से ही वे इन शक्तियों को शांत कर सकते हैं। यही वजह है कि गर्मियों की छुट्टियों में लोग अपने गांव लौटकर इस परंपरा को निभाते हैं।


मसाण को मान्यता

भारत सरकार का संस्कृति मंत्रालय भी मसाण को स्थानीय देवता की श्रेणी में गिनता है। मंत्रालय की आधिकारिक वेबसाइट पर मसाण और खबीस का वर्णन मिलता है, जिसमें इन्हें श्मशान और जंगलों में रहने वाली शक्तियों के रूप में बताया गया है।


मसाण की पहचान

मान्यताओं के अनुसार, मसाण काला और कुरूप होता है। वह चिता की राख से उत्पन्न होता है और लोगों को बीमार, पागल या यहां तक कि मृत भी कर सकता है। कई बार यह भैंस या भेड़-बकरी की आवाज़ में बोलता है और साधु के वेश में यात्रियों के साथ चलने लगता है।


जागर और उग्र उपाय

जब किसी पर मसाण चढ़ता है तो गांव वाले जागर कराते हैं। इस दौरान धान-चावल फेंके जाते हैं, बिच्छू घास से मारते हैं और गरम राख फेंककर भूत को भगाने की कोशिश की जाती है। कई बार यह प्रक्रिया इतनी उग्र हो जाती है कि पीड़ित की जान तक चली जाती है।


आस्था या अंधविश्वास?

कुछ लोग इसे अंधविश्वास मानते हैं तो कुछ इसे अपनी धार्मिक परंपरा। लेकिन पहाड़ों में मसाण का डर और उनकी पूजा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी सदियों पहले थी।