कर्नाटक में जाति गणना पर उठे सवाल: खर्च और राजनीतिक विवाद
जाति गणना की रिपोर्ट का विवाद
कर्नाटक में 2015 में की गई जाति गणना की रिपोर्ट हाल ही में सार्वजनिक की गई थी। हालांकि, इसे 17 अप्रैल को कैबिनेट में पेश किया जाना था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अब कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी ने इसे रद्द करने का निर्देश दिया है। इस स्थिति में यह सवाल उठता है कि 10 साल पहले हुई जाति गणना पर 160 करोड़ रुपये का खर्च किसके लिए था? यदि रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया जाना था, तो इसे सार्वजनिक करने और कैबिनेट में लाने का क्या औचित्य था?
एक और महत्वपूर्ण सवाल यह है कि यदि इसे रद्द कर दिया गया है, तो फिर सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक गणना कराने का क्या उद्देश्य है? यदि नई जाति गणना की जाती है, तो उस पर 200 करोड़ रुपये या उससे अधिक का खर्च आएगा, जबकि केंद्र सरकार जल्द ही जाति जनगणना कराने की योजना बना रही है।
यह ध्यान देने योग्य है कि केंद्र सरकार ने 16 जून को जनगणना की अधिसूचना जारी की है, जिसमें जातियों की गिनती भी शामिल है। ऐसे में राज्य सरकार को सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च करके अलग से यह कार्य कराने की आवश्यकता क्यों है? कर्नाटक में यह सवाल भी उठता है कि जब सिद्धारमैया मुख्यमंत्री थे, तो गिनती उसी तरह होगी जैसे पहले की गई थी, और इससे लिंगायत, वोक्कालिगा और अन्य समुदायों का विरोध जारी रहेगा। दलितों का भी विरोध संभव है, क्योंकि हाल ही में एससी सूची में कुछ पिछड़ी जातियों को शामिल करने पर विवाद हुआ था। इस प्रकार, भारी खर्च के बावजूद जाति गणना में सब कुछ ठीक रहेगा, यह कहना मुश्किल है। इसके बजाय, यह राज्य में राजनीतिक विरोध और ध्रुवीकरण का कारण बन सकता है.
