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जगन्नाथ रथयात्रा: रस्सियों का आध्यात्मिक महत्व और इतिहास

जगन्नाथ रथयात्रा में रस्सियों का विशेष महत्व है, जो न केवल रथों को खींचने का कार्य करती हैं, बल्कि भक्तों के लिए आध्यात्मिक पुण्य का स्रोत भी हैं। इन रस्सियों के नाम और उनके पीछे की पौराणिक कथाएं जानकर आप इस महान उत्सव की गहराई को समझ सकते हैं। जानें कैसे ये रस्सियां भक्तों के समर्पण और प्रेम का प्रतीक हैं और ओडिशा की संस्कृति में इनका स्थान क्या है।
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जगन्नाथ रथयात्रा: रस्सियों का आध्यात्मिक महत्व और इतिहास

जगन्नाथ रथयात्रा में रस्सियों का महत्व


जगन्नाथ रथयात्रा में तीन प्रमुख रथ होते हैं, और हर रथ की रस्सी का एक विशेष नाम और अर्थ होता है।


1. **शंखचूड़ रस्सी** – यह भगवान जगन्नाथ के रथ (नंदीघोष) को खींचने के लिए उपयोग की जाती है। कहा जाता है कि यह रस्सी शंखचूड़ नामक राक्षस की रीढ़ की हड्डी से बनी थी, जिसे बलभद्र ने मारा था। इसके बाद इसे पवित्र माना गया और रथ खींचने का माध्यम बना।


2. **वासुकी रस्सी** – यह बलभद्र के रथ (तालध्वज) को खींचने वाली रस्सी है।


3. **स्वर्णचूड़ा या नदंबिक रस्सी** – यह देवी सुभद्रा के रथ (पद्मध्वज) को खींचने वाली रस्सी है।


इन रस्सियों का भक्तों के लिए विशेष आध्यात्मिक महत्व है। इन्हें छूने से भक्तों को पुण्य की प्राप्ति होती है और उनके पाप धुल जाते हैं, जिससे उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। रस्सी खींचने से भक्तों का भक्ति-भाव प्रकट होता है, जो उनके समर्पण और प्रेम को दर्शाता है।


पौराणिक कथाओं के अनुसार, शंखचूड़ नामक राक्षस ने भगवान जगन्नाथ का अपहरण करने का प्रयास किया था। भगवान बलभद्र ने उसे वध किया और उसकी रीढ़ की हड्डी से रस्सी बनाई, जिसे आज भी जगन्नाथ जी के रथ के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।


ओडिशा की संस्कृति और परंपरा में, रथों की रस्सियां विशेष रूप से बिराप्रतापुर गांव या कोरल मिलों में बनाई जाती हैं, जिसमें सूत, कर्न्येय पदार्थ और तेल शामिल होते हैं। रथयात्रा के दौरान लाखों भक्त उत्साह के साथ रथ खींचते हैं, जो हिंदू धर्म के सबसे बड़े उत्सवों में से एक है।