जैनेंद्र कुमार: हिंदी साहित्य के मनोविश्लेषक और देशभक्त
जैनेंद्र कुमार का साहित्यिक योगदान
नई दिल्ली: हिंदी साहित्य के मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार जैनेंद्र कुमार ने हिंदी उपन्यास को एक नई दिशा प्रदान की। उन्होंने मनोविश्लेषण के माध्यम से पात्रों के अंतर्मन को गहराई से चित्रित किया। कुछ आलोचकों ने उन्हें विवादास्पद माना, जबकि कई साहित्यकारों ने उन्हें 'मानव मन का मसीहा' और 'नए युग का प्रवर्तक' कहा।
जीवन की कठिनाइयाँ और शिक्षा
जैनेंद्र का जन्म 2 जनवरी 1905 को उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले के कौड़ियागंज गांव में हुआ। उनका बचपन कठिनाइयों से भरा था, क्योंकि उनके पिता का निधन जब वह केवल दो वर्ष के थे। उनकी मां और मामा ने उनका पालन-पोषण किया। उन्होंने हस्तिनापुर के जैन गुरुकुल से अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें 1920 के दशक में गिरफ्तार किया गया। पत्रकारिता में कदम रखने के बाद, उन्होंने साहित्य को अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाया। भारत सरकार ने उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार और पद्म भूषण से भी सम्मानित किया।
देशभक्ति और सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता
जैनेंद्र की शादी के समय उन्होंने आंगन में भारत का मानचित्र बनवाया और उसी के फेरे लिए। यह उनके देशभक्ति का प्रतीक था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, उन्होंने भारत की एकता के लिए समर्पण दिखाया। उन्होंने सरकारी पद को ठुकरा दिया, क्योंकि वह मानते थे कि यह स्वतंत्र लेखन में बाधा डाल सकता है। उनके लिए साहित्यकार की स्वतंत्रता सर्वोपरि थी।
प्रमुख रचनाएँ और उनका प्रभाव
जैनेंद्र ने न केवल साहित्य में मनोविश्लेषण की नई परंपरा स्थापित की, बल्कि जीवन में भी अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे। उनकी रचनाएँ आज भी पाठकों को सोचने पर मजबूर करती हैं। उनके प्रमुख उपन्यासों में 'परख', 'सुनीता', 'त्यागपत्र', 'कल्याणी', 'मुक्तिबोध', 'विवर्त', 'जयवर्धन', और 'नीलम' शामिल हैं। कहानी संग्रह में 'फांसी', 'वातायन', 'पाजेब', और 'दो चिड़ियां' जैसे नाम हैं। जैनेंद्र का निधन 24 दिसंबर 1988 को हुआ।
