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झारखंड हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: स्पेशल मैरिज एक्ट को माना सर्वोपरि

झारखंड हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954 के तहत की गई शादी किसी भी धार्मिक कानून से ऊपर है। इस फैसले में धनबाद के पैथोलॉजिस्ट मोहम्मद अकील आलम की दूसरी शादी को अवैध ठहराया गया, क्योंकि उनकी पहली पत्नी जीवित थी। अदालत ने इस मामले में पत्नी के आरोपों को गंभीरता से लिया और अकील की याचिका को खारिज कर दिया। जानें इस ऐतिहासिक फैसले के बारे में और क्या है इसके पीछे की कहानी।
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झारखंड हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: स्पेशल मैरिज एक्ट को माना सर्वोपरि

महत्वपूर्ण निर्णय

रांची: झारखंड हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि यदि कोई व्यक्ति 'स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954' के तहत विवाह करता है, तो यह कानून किसी भी व्यक्तिगत या धार्मिक कानून से ऊपर होगा। अदालत ने धनबाद के एक पैथोलॉजिस्ट द्वारा दूसरी शादी को इस्लामिक कानून के तहत वैध ठहराने की दलील को खारिज कर दिया, जबकि उसकी पहली पत्नी जीवित थी।


मामले का विवरण

यह मामला धनबाद के मोहम्मद अकील आलम से संबंधित है, जिन्होंने 4 अगस्त, 2015 को स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत दूसरी शादी की। कुछ महीनों बाद, उनकी दूसरी पत्नी उन्हें छोड़कर अपने मायके देवघर चली गई। इसके बाद अकील ने फैमिली कोर्ट में पत्नी को वापस लाने के लिए याचिका दायर की।


पत्नी के आरोप

सुनवाई के दौरान, पत्नी ने अदालत को बताया कि अकील पहले से शादीशुदा था और उसकी पहली पत्नी से दो बेटियां भी हैं। उसने आरोप लगाया कि अकील ने शादी के समय यह जानकारी छिपाई और उसके पिता से संपत्ति नाम कराने का दबाव बनाया। मांग पूरी न होने पर उसके साथ मारपीट भी की गई।


अदालत का निर्णय

फैमिली कोर्ट में अकील ने खुद स्वीकार किया कि उसकी पहली पत्नी जीवित थी। अदालत ने पाया कि उसने शादी के रजिस्ट्रेशन के समय यह तथ्य जानबूझकर छिपाया। दिलचस्प बात यह है कि पहले अकील ने मेंटेनेंस से बचने के लिए अपनी दूसरी शादी को अवैध बताया था, लेकिन बाद में उसी शादी को वैध बताकर पत्नी को वापस लाने की मांग करने लगा।


हाई कोर्ट का फैसला

अकील ने फैमिली कोर्ट के फैसले के खिलाफ झारखंड हाई कोर्ट में अपील की। जस्टिस सुजीत नारायण प्रसाद और जस्टिस राजेश कुमार की खंडपीठ ने फैमिली कोर्ट के निर्णय को सही ठहराते हुए कहा कि स्पेशल मैरिज एक्ट की धारा 4(ए) स्पष्ट रूप से कहती है कि विवाह के समय किसी भी पक्ष का कोई जीवनसाथी जीवित नहीं होना चाहिए।


कोर्ट ने कहा, “यह एक्ट एक 'नॉन ऑब्स्टांटे' क्लॉज के साथ शुरू होता है, जिसका अर्थ है कि स्पेशल मैरिज एक्ट के प्रावधान किसी भी अन्य कानून, चाहे वह धार्मिक ही क्यों न हो, पर वरीयता रखेंगे।” हाई कोर्ट ने अकील की याचिका को खारिज करते हुए उसे बड़ा झटका दिया है।