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पश्चिम बंगाल में मतुआ समुदाय की राजनीति और नागरिकता की चुनौतियाँ

पश्चिम बंगाल में मतुआ समुदाय की राजनीति और नागरिकता की चुनौतियाँ गहराई से चर्चा का विषय बनी हुई हैं। इस समुदाय की जनसंख्या को लेकर कई भ्रांतियाँ हैं, और हाल ही में मतदाता सूची में नाम कटने की घटनाएँ भी सामने आई हैं। जानें कैसे ये मुद्दे मतुआ समाज को प्रभावित कर रहे हैं और राजनीतिक लाभ के लिए इनका उपयोग किया जा रहा है।
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पश्चिम बंगाल में मतुआ समुदाय की राजनीति और नागरिकता की चुनौतियाँ

मतुआ समुदाय की राजनीतिक स्थिति

पश्चिम बंगाल में मतुआ समुदाय के मुद्दे पर राजनीति का सबसे अधिक जोर है। इस समुदाय की जनसंख्या को लेकर कई भ्रांतियाँ फैली हुई हैं। अनुमानित रूप से, मतुआ की आबादी 50 से 60 लाख के बीच है, जबकि कुछ लोग इसे एक से तीन करोड़ तक बताते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, इस समुदाय की संख्या 35 लाख थी। पश्चिम बंगाल में दलितों की कुल आबादी 18 प्रतिशत है, जिसमें राजबंशी 21 प्रतिशत और नामशूद्र, जिनमें मतुआ शामिल हैं, लगभग 18 प्रतिशत हैं। यह समुदाय 1947 में पूर्वी पाकिस्तान से भारत आया और उत्तर व दक्षिण 24 परगना, नादिया और उत्तरी बंगाल के कुछ क्षेत्रों में बस गया। हाल ही में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण में इन लोगों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ा है।


नागरिकता और मतदाता सूची की चुनौतियाँ

इन लोगों को पहले नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के तहत भारत की नागरिकता प्राप्त करनी थी, जिसके बाद उन्हें मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने के लिए आवेदन देना था। कई मतुआ लोग इस चिंता में आवेदन नहीं कर पाए कि कहीं उनकी नागरिकता खतरे में न पड़ जाए। रिपोर्ट्स के अनुसार, लगभग एक लाख लोगों के नाम मतदाता सूची से हटा दिए गए हैं। इस पर मतुआ समाज के नेता और केंद्रीय मंत्री शांतनु ठाकुर ने कहा कि यदि 50 लाख बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों के नाम कट सकते हैं, तो एक लाख मतुआ लोगों का नाम कटना कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन यह बात सही नहीं है। वे मतुआ समुदाय को गुमराह कर रहे हैं और सांप्रदायिक नैरेटिव बना रहे हैं। वास्तव में, कुल 58 लाख नाम कटे हैं, जिनमें अधिकतर हिंदुओं के हैं। मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में नामों की कटौती बहुत कम है। माल्दा और मुर्शिदाबाद में भी औसत से कम नाम कटे हैं। इसलिए बांग्लादेशी और रोहिंग्या के नाम कटने का प्रचार केवल राजनीतिक लाभ के लिए किया जा रहा है।