पाकिस्तान-सऊदी अरब रक्षा समझौता: क्या बनेगा नया इस्लामिक NATO?
पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच हाल ही में हुए रक्षा समझौते को एक संभावित 'नए NATO' के रूप में देखा जा रहा है। इस समझौते के तहत, यदि किसी एक देश पर हमला होता है, तो इसे दोनों देशों पर आक्रमण माना जाएगा। यह घटनाक्रम न केवल दक्षिण एशिया बल्कि पूरे इस्लामिक जगत और वैश्विक सामरिक संतुलन पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है। क्या यह समझौता अन्य मुस्लिम देशों तक फैलेगा? और क्या इससे भारत-पाक संबंधों में नई जटिलताएँ उत्पन्न होंगी? जानिए इस लेख में।
Oct 4, 2025, 12:12 IST
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पाकिस्तान और सऊदी अरब का रक्षा समझौता
पाकिस्तान के उप-प्रधानमंत्री इशाक डार ने हाल ही में पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच हुए रक्षा समझौते को एक संभावित "नए NATO" के रूप में देखा है। उनका कहना है कि यह समझौता न केवल दक्षिण एशिया बल्कि पूरे इस्लामिक जगत और वैश्विक सामरिक संतुलन पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है। यह विचार केवल एक राजनीतिक बयान नहीं है, बल्कि यह उन गहरे भू-राजनीतिक और धार्मिक समीकरणों का संकेत है जो मुस्लिम देशों की सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था को नया आकार दे सकते हैं।
18 सितंबर को पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच हुए "सामरिक आपसी रक्षा समझौते" के अनुसार, यदि किसी एक देश पर हमला होता है, तो इसे दोनों देशों पर आक्रमण माना जाएगा। यह मॉडल NATO की सामूहिक रक्षा नीति की याद दिलाता है। यदि यह समझौता अन्य मुस्लिम देशों तक फैलता है, तो यह पश्चिम एशिया और दक्षिण एशिया के सामरिक संतुलन को प्रभावित कर सकता है।
पाकिस्तान का दावा
सऊदी अरब की सामरिक स्थिति पहले से ही मजबूत है, जबकि पाकिस्तान के पास परमाणु शक्ति और सैन्य कौशल है। यदि इन दोनों शक्तियों का मेल होता है और अन्य मुस्लिम राष्ट्र भी इसमें शामिल होते हैं, तो यह एक ऐसा सैन्य ब्लॉक बना सकता है जो अमेरिका-यूरोप या रूस-चीन जैसी महाशक्तियों की रणनीति को चुनौती दे सके।
भारत के लिए यह घटनाक्रम चिंता का विषय है। पाकिस्तान ने हाल ही में भारत के साथ सीमित संघर्ष का हवाला देते हुए कहा कि यदि यह समझौता लागू होता, तो भारत का हमला सऊदी अरब पर हमला माना जाता। इसका मतलब है कि भविष्य में किसी भी भारत-पाक तनाव में खाड़ी देशों का अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप संभव हो सकता है, जिससे भारत की पश्चिम एशिया नीति और अधिक जटिल हो जाएगी।
इशाक डार का यह दावा कि "पाकिस्तान एक दिन 57 इस्लामिक देशों का नेतृत्व करेगा" कई प्रश्न खड़े करता है। पारंपरिक रूप से, इस्लामिक दुनिया का नेतृत्व सऊदी अरब और तुर्की ने किया है। यदि पाकिस्तान का यह दावा सच होता है, तो यह एक नया शक्ति-संतुलन स्थापित कर सकता है। यदि यह "इस्लामिक NATO" जैसा गठबंधन बनता है, तो इसके कई राजनीतिक प्रभाव होंगे।
अमेरिका और यूरोप के लिए यह विकास दोधारी तलवार है। एक ओर, सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच सहयोग उनके सामरिक हितों के अनुकूल है। दूसरी ओर, यदि यह गठबंधन स्वतंत्र शक्ति-केंद्र के रूप में उभरता है, तो यह पश्चिमी नियंत्रण से बाहर जाकर अपनी अलग विदेश नीति बना सकता है।
इशाक डार ने आर्थिक शक्ति बनने की बात भी कही है। कोई भी सैन्य गठबंधन तब तक टिकाऊ नहीं होता जब तक उसके पास वित्तीय और औद्योगिक शक्ति न हो। यदि यह संगठन केवल सैन्य सुरक्षा तक सीमित नहीं रहकर आर्थिक सहयोग का ढांचा भी बनाता है, तो यह यूरोपीय संघ जैसा स्वरूप ग्रहण कर सकता है।
पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच रक्षा समझौता, जिसे "नए NATO" के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, अभी शुरुआती चरण में है। लेकिन इसके निहितार्थ गहरे हैं। यह न केवल भारत-पाक संबंधों में नई जटिलताएँ पैदा करेगा बल्कि इस्लामिक जगत के भीतर नेतृत्व की नई प्रतिस्पर्धा भी आरंभ करेगा।
यदि यह गठबंधन केवल रक्षा तक सीमित रहता है, तो इसका प्रभाव सीमित रहेगा; लेकिन यदि यह राजनीतिक और आर्थिक मंच का रूप ले लेता है, तो यह आने वाले दशक में वैश्विक शक्ति-संतुलन को बदलने वाला सबसे बड़ा प्रयोग हो सकता है।