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प्रधानमंत्री मोदी ने अहिल्याबाई होलकर की 300वीं जयंती पर विशेष सिक्का जारी किया

भोपाल में शनिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकमाता अहिल्याबाई होलकर की 300वीं जयंती के अवसर पर 300 रुपये का विशेष स्मृति सिक्का जारी किया। इस कार्यक्रम में एक स्मारक डाक टिकट भी जारी किया गया, जिसमें महारानी की छवि है। पीएम मोदी ने महिला कलाकारों को 'प्रधानमंत्री राष्ट्रीय देवी अहिल्याबाई पुरस्कार' से सम्मानित करने की घोषणा की। जानें महारानी अहिल्याबाई का जीवन और उनके योगदान के बारे में।
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भोपाल में ऐतिहासिक समारोह

शनिवार को भोपाल ने एक महत्वपूर्ण घटना का गवाह बना, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकमाता अहिल्याबाई होलकर की 300वीं जयंती के अवसर पर 300 रुपये का विशेष स्मृति सिक्का जारी किया। इसके साथ ही, एक स्मारक डाक टिकट भी जारी किया गया, जिसमें महारानी अहिल्याबाई की छवि है। इस अवसर पर पीएम मोदी ने पारंपरिक और जनजातीय कलाओं में योगदान देने वाली महिला कलाकारों को 'प्रधानमंत्री राष्ट्रीय देवी अहिल्याबाई पुरस्कार' से सम्मानित करने की घोषणा की। यह कार्यक्रम केवल एक सरकारी आयोजन नहीं था, बल्कि भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय को पुनर्जीवित करने का अवसर था।


महारानी अहिल्याबाई होलकर का जीवन

अहिल्याबाई होलकर का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के चौंडी गांव में हुआ था। एक साधारण परिवार से आने वाली इस महिला ने अपनी दया और करुणा से इतना प्रभाव डाला कि मालवा के शासक मल्हारराव होलकर ने उन्हें अपनी बहू बनाने का निर्णय लिया। इस प्रकार, आठ साल की उम्र में उनका विवाह खांडेराव होलकर से हुआ और वे सीधे एक सामान्य घर से राजमहल में आ गईं।


कठिनाइयों का सामना

महल में आने के बाद भी अहिल्याबाई का जीवन आसान नहीं था। उनके पति युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए और ससुर का निधन हो गया, इसके बाद उनके एकमात्र पुत्र का भी निधन हो गया। एक सामान्य महिला शायद टूट जाती, लेकिन अहिल्याबाई ने खुद को संभाला और मालवा की बागडोर अपने हाथों में ली। उन्होंने पेशवा से अनुमति लेकर शासन संभाला और अपनी बुद्धिमत्ता और साहस से सबका दिल जीत लिया।


एक महान योद्धा

राज्य संभालने के कुछ समय बाद, उन्होंने साबित कर दिया कि वे केवल एक महिला नहीं, बल्कि एक दूरदर्शी और रणनीतिकार भी हैं। उन्होंने अपने दत्तक पुत्र तुकोजीराव होलकर को सेनापति नियुक्त किया और स्वयं सेना का नेतृत्व करते हुए आक्रमणकारियों को मुंहतोड़ जवाब दिया। उनकी राजनीतिक दूरदर्शिता का प्रमाण 1772 में पेशवा को लिखा गया पत्र है, जिसमें उन्होंने अंग्रेजों के खतरे को पहले ही भांप लिया था। उन्होंने कहा था, "शेर को साहस से मारा जा सकता है, लेकिन रीछ (भालू) को समझदारी से ही हराया जा सकता है। अंग्रेजों की नीति भी कुछ ऐसी ही है।"